हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया

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हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया

अवधेश प्रीत



  • ये हैं अरविन्द रंजन दास. फिल्मकार, रंगकर्मी और हर हाल में मुस्कुराते रहनेवाले यारबाश बतर्ज़ हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया. एक अरसे से मुंबई में मुकीम हैं, फ़िलहाल अपनी फीचर फ़िल्म के निर्माण और रिलीज़ के सिलसिले में पिछले कई महीनों से पटना में प्रवास कर रहे हैं. इस बीच अरविन्द से फोन पर बातें होती रहीं और मिलने का सिलसिला टलता रहा, दिलचस्प यह कि पहले जब अरविन्द पटना आते तो मिलने का अवसर निकाल लेते. इसबार, वह अपनी व्यस्तता में मुलाक़ात को मुल्तवी करते रहे. जब फोन पर इस बाबत बात हुई तो मैंने कहा, काम शुरु होने से पहले सुबह की चाय मेरे साथ पियो और बात बन गई. अरविन्द पटना की बसावट और बनावट में रोज- रोज हो रहे बदलावों को धता बताते हुए घर आ पहुंचे इस उत्साह के साथ कि पटना के चप्पे-चप्पे से वाक़िफ़ हूं- भइया. कुछ नहीं भूला! अरविन्द की आँखों की चमक और चेहरे की दमक में अपने शहर के साथ अंतरंगता का रंग खूब नुमायां था.
    ‘अंतरंग’ अरविन्द की नाट्य संस्था थी.सन चौरासी- पिच्चासी में खूब सक्रिय नाट्य संस्थाओं में ‘अंतरंग’ का भी बड़ा नाम था. अरविन्द बैंक में काम करते थे, बाक़ी समय में नाटक के लिए उद्यम- उपक्रम.एक नाट्य संस्था चलाना आसान नहीं होता.पीर, बवार्ची,भिस्ती, खर तमाम जिम्मेदारियां खुद उठानी पड़ती हैं. ऐसे ही दिनों में उनकी संस्था के वार्षिकोत्सव के अवसर पर हुए एक नाटक को देखने का मुझे मौका मिला. अगले दिन ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ में इसकी विस्तृत समीक्षा छपी.समीक्षा मैंने लिखी थी और मैंने प्रकाश-योजना में रही कुछ त्रुटियों की ओर इशारा किया था. अरविन्द मुझे खोजते हुए अपने कुछ मित्रों के साथ मेरे दफ़्तर ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ आ धमके. वह थोड़े खिन्न लग रहे थे. उन्होंने प्रकाश-संयोजन पर मुझसे बहस की और अंततः मेरे तर्क से सहमत हुए. अरविन्द ने आश्वस्त होते हुए कहा, पहली बात तो अख़बारों में नाटकों की इतनी विस्तृत समीक्षा छपती नहीं और जो छपता है, वह रिपोर्टिंग भर होती है, जिसका कोई सिर-पैर नहीं होता.इसलिए किसी प्रस्तुति को रंगभाषा में समझने-समझाने वाली यह समीक्षा हमारे लिए वाक़ई मार्गदर्शक है. अंत में उन्होंने यह भी जड़ा कि मैं तो यह भी देखना चाहता था कि वो कौन है, जो अख़बार में रंगमंच पर इतनी अर्थपूर्ण समीक्षा लिख रहा है.तल्ख़ तेवरों के साथ शुरु हुआ संवाद चाय की चुस्कियों के साथ आत्मीयता की हद पर आ पंहुचा. उसदिन अरविन्द की विनम्रता ने मुझे क़ायल कर दिया. फिर तो मैं कब उनका बड़ा भाई बन गया नहीं पता. दरअसल, रिश्तों का रिश्तों में घुलकर एकसार हो जाना एक सहज प्रक्रिया है, जो किसी दिन…महीने…तारीख का मुहताज नहीं. अरविन्द जबतक पटना में रहे जमकर नाटक करते रहे… एक निर्देशक, एक अभिनेता और एक टीम को साथ लेकर चलने वाले कप्तान के तौर पर रंग जगत में उनकी बड़ी पहचान बन चुकी थी.फिर अचानक पता चला अरविन्द फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट, पुणे को प्रस्थान कर गये हैं.एक राष्ट्रीय बैंक की नौकरी छोड़कर FTI जाने को उस ज़माने में कोई अच्छा नहीं मानता था. पर वह जूनून ही क्या जो सर चढ़कर न बोले. कोर्स पूरा कर लौटे तो पटना दूरदर्शन में एडिटर के तौर पर अपनी सेवाएं देने लगे.तर्क यह कि पटना में रहकर कुछ बड़ा करना है. लेकिन कुलजमा यह कि हम जैसे शुभेच्छाओं की लिए यह सब पीड़ादायक था. एक लगी लगाई नौकरी छोड़कर बंदा दूरदर्शन में एडिटरी करे, बात गले नहीं उतर रही थी.फिर एक दिन अचानक, गोकि कुछ भी अचानक नहीं होता, अरविन्द रंजन दास मुंबई लौट गये.जाहिर है, उनके इस लौटने में कुछ सार्थक न कर पाने की हताशा और कच्ची ज़मीन पर पांव न जम पाने की विवशता भी रही होगी.मुंबई में उनके कई तरह के संघर्ष और यात्रा की लंबी दास्तान है, बावजूद इसके फ़िल्म बनानी है, यह जूनून उनपर हमेशा हावी रहा. जब भी मुलाक़ात होती, वह अपनी इस इच्छा के लिए बेहद उत्साह और उम्मीद से भरे होते. बीच-बीच में कुछ प्रोजेक्ट बने, कुछ बिगड़े, पर जूनून कम न हुआ. इस दौरान समय के प्रवाह में बहुत कुछ बह गया, पानी…पसीना और परिस्थितियां…अरविन्द फ़िल्म पठन- पाठन के कार्य से भी जुड़े… कई संस्थाओं में अध्यापन भी किया… अनेक उतार-चढ़ाव, बढ़ती-चढ़ती उम्र और गुणा-भाग की दुनियावी मसरूफ़ियात में अगर कुछ कम नहीं हुआ तो फ़िल्म निर्माण – निर्देशन का जूनून. इसी जुनून के सदके अरविन्द ने अपनी फीचर फ़िल्म ‘ एक सूरत है मेरी आँखों में ‘ पूरी कर ली है. फ़िल्म रिलीज़ के लिए तैयार है. संभवतः चुनावों के बाद फ़िल्म बड़े परदे पर देखने को मिलेगी.अरविन्द अपनी फ़िल्म को लेकर बेहद उत्साहित हैं.वह इस बात पर ज़्यादा जोर देते दिखे कि फ़िल्म में कलाकार से लेकर तकनीशियन तक स्थानीय हैं.
    अरविन्द रंजन दास रिश्तों के प्रति आत्मीयता और काम के प्रति प्रतिबद्धता का निर्वाह करने में जिस गर्मजोशी का मुजाहिरा करते हैं, हम कामना करते हैं कि उनकी फ़िल्म, उनके इस शाहकार का सिने दर्शक भी गर्मजोशी से स्वागत करें और हम एक सपने को साकार होते हुए देखें. यह मुलाक़ात इस वादे के साथ ख़त्म हुई कि मैं फ़िल्म कि स्पेशल स्क्रीनिंग में ज़रूर शामिल होऊं.

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