चौदहवीं का चांद

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चौदहवीं का चांद

– डॉ ध्रुव कुमार

कल,

चौदहवीं का चांद

खिला था आसमान में,

चांदनी की भार से

 कुछ ज्यादा खिला-खिला था चांद !

बादलों की ओट में

कभी छुपता,

कभी शरमाता,

कभी सकुचाता!

चांदनी की उजास ऐसी

कि रोशन होने लगी थी मेरी जिंदगी!

चैत की टहकदार और गंध मदमाती,

 कार्तिक की तरह उज्जवल,

शरद की तरह,

अमृत बरसाती !

बरस रही थी धवल चांदनी,

उमड़ रहा था प्यार !

इधर, मस्तमस्त चांदनी की फुहार से

 सराबोर हो,

सुध-बुध खोता मैं !

उधर, बादलों को पछाड़ने की आपा-धापी में,

मेरी तरफ,

झुकने लगा था चांद !

नजदीक से देखा

 अक्स था उनका,

चांदनी नहीं !

जिनके भार से झुका था चांद,

मेरी तरफ !

जिसकी दूधिया मलाईदार चमक से,

चहक रहा था मेरा रोम-रोम !

काश,

 ऐसा चांद,

हर दिन खिले आसमान में !

और ऐसी चांदनी,

हर दिन उतरे मेरे घर आंगन में !

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