माधुरी भट्ट
सुमित्रा तीन दिन से लगातार डाकिया का इंतज़ार कर रही थी। साहित्यप्रेमी सुमित्रा की हर माह तीन-चार पत्रिकाएँ कुछ- कुछ दिनों के अंतराल पर आती रहती हैं, जिसमें उनकी भी रचनाएँ शामिल रहती हैं।डाकिया भी उनसे ख़ूब घुलमिल गया है। उसे पता है कि दीदी बिना पानी पिलाए -कुछ खिलाए उसे कभी भी नहीं जाने देती।इसलिए कॉलबेल बजाते ही डाकिया सुरेश की भूख- प्यास बढ़ जाती है। दीदी के पूछते ही “पानी पियोगे सुरेश” दीदी की बात पूरी होने से पहले ही बोल पड़ता है , “जी दीदी “। पेशे से शिक्षिका होने के नाते सुमित्रा दीदी डाकिया सुरेश से भी अपने विद्यार्थियों के जैसे ही अधिकार के साथ व्यवहार करती हैं। ” पहले हाथ सेनिटाइज करो,फिर मास्क उतार कर कुछ खाना -पीना।” सुरेश भी उनकी हर बात का पालन एक विद्यार्थी की भाँति ही बड़े आदर से करता है।
जलपान के बाद सुरेश दीदी से जाने की आज्ञा लेता है और सुमित्रा उसे एक टिकिट लगा लिफ़ाफ़ा जिस पर डाकघर की मुहर भी लगी हुई है और उनके बगल वाले फ्लैट नम्बर 205 का पता लिखा हुआ है, उसे थमाते हुए कहती है कि इस लिफ़ाफ़े को वह उन्हें देता हुआ जाए। उसे कुछ हैरानी हुई कि बगल वाले फ्लैट में तो दीदी स्वयं भी दे सकती हैं ,साथ ही उस लिफ़ाफ़े पर लगे टिकिट की मुहर भी कुछ अस्पष्ट सी लगी ,जैसे किसीने उस पर लिखी जानकारी को बड़ी चतुराई से हल्का करने की कोशिश की हो,ताकि किसी को कुछ भी स्पष्ट न दिख सके , लेकिन उसने दीदी से कोई सवाल -जवाब नहीं किया और बगल वाले फ्लैट में लिफाफा पकड़ाते हुए अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा।
पिछले हप्ते से सुमित्रा के दिल पर पड़ा हुआ बोझ तो जैसे छू मंतर हो गया था।वह आनन्दमयी अवस्था में पहुँच गई ।शुक्रवार की रात को पड़ोसी गुरमीतसिंह का अपनी धर्मपत्नी हरजीत को रुआँसी आवाज़ में कहना ,”धैर्य रखो, वाहेगुरु कृपा अवश्य करेंगे, कुछ दिन बाद ग्राहक दुकान पर अवश्य आएँगे,अभी तो सब लोग आर्थिक संकट से ही जूझ रहे हैं इसलिए फर्नीचर ख़रीदने की कौन सोचेगा ! ” संयोग से सुमित्रा के ध्यान का कमरा पड़ोसी गुरमीत के शयनकक्ष से सटी हुई दीवार से ही लगा हुआ था। ध्यान कक्ष में शांति होने के कारण आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी।सुमित्रा मनोयोग से कान लगाकर उस आवाज़ को सुनने में लग गई। हरजीत के मुख से निकले वे शब्द ,” आज कितने दिन हो गए ,बच्चों ने दूध के दर्शन नहीं किए, फल -सब्ज़ी घर में आए हुए महीनों बीत गए हैं, आलू का झोल और चावल कितने दिन और खाएँगे बच्चे! सुनते ही सुमित्रा की आत्मा उसे बुरी तरह कचोटने लगी, हालाँकि वह जानती थी कि अभी निम्न मध्यमवर्गीय परिवार बहुत बुरी अवस्था में ,विशेषतौर व्यापारी वर्ग क्योंकि कोरोनाकाल की वजह से सबकुछ अस्तव्यस्त जो हो गया है । निचले तबक़े के लोगों के लिए तो सरकारी सहायता भी मिल रही है, साथ ही स्वयंसेवी संस्थाएँ भी मदद कर रही हैं लेकिन निम्न मध्यवर्गीय परिवारों को तो आत्मसम्मान के चलते अपनी व्यथा किसी को सुनाने का भी अधिकार नहीं।
सारी बातें सुनने के बाद सुमित्रा उधेड़बुन में लग गई कि किस तरह पड़ोसी की मदद की जाए।वह जानती थी कि वे लोग बहुत स्वाभिमानी हैं, कभी हाथ नहीं फैलाएँगे। आख़िर अपने ध्यान में समस्या का हल उसे मिल ही गया। पुरानी फ़ाइलों में रखे लिफ़ाफ़े और सँजोए हुए टिकिट को बहुत सावधानी से हल्का कर दिया, ताकि पढ़ने वाला कोशिश के बावजूद भी पढ़ने में सक्षम न हो पाए। आज उसे टिकिट सँजोए रखने के अपने शौक़ पर गर्व महसूस हो रहा था। हज़ार हज़ार के ग्यारह नोट उस लिफ़ाफ़े में रख दिए।साथ ही एक छोटा सा नोट भी लिख कर रख दिया। ” प्रिय हरजीत! यह लिफ़ाफ़ा वाहे गुरु ने भेजा है।जब तुम्हारा समय अच्छा आ जाए तब किसी ज़रूरत मन्द की मदद के लिए हाथ बढ़ा देना।
अनन्त शुभकामनाओं के साथ
वाहे गुरु सेवक अज्ञात।