मेरे अंदर की लेखिका और सोशल मीडिया

0

 

 

 

 

 

 

 

 

ऋचा वर्मा.                                                         हास्य व्यंग्य की रचना
( पटना)
सोशल मीडिया हम जैसे छोटे-मोटे लेखकों के लिए एक उदार मंच के रूप में उभरा है। बचपन से लेखिका बनने के सपने लेकर बड़ी हुई, लेकिन हमारे जमाने में सोशल मीडिया तो दूर मोबाइल फोन तक का कोई अता पता नहीं था। लैंडलाइन हुआ करता था, जिस पर अपने शहर के लोगों से तो आप सामान्य तरीके से बात कर सकते थे, परंतु शहर के बाहर बात करने के लिए ट्रंक कॉल बुक करना पड़ता, और बारी आने पर इतनी ऊंची आवाज में बोलना पड़ता कि दूसरे शहर में तो आवाज फोन के चोंगे के माध्यम से पहुंचती, पर इस तरफ पूरे मोहल्ले में आवाज अपने मौलिक रूप में ही इस तरह पहुंचती कि लोगों को पता चल जाता कि आपने ट्रंक कॉल बुक किया है। सो वह खालिस प्रिंट मीडिया का दौर था, और उस दौर में एक आध पत्र संपादक के नाम कॉलम में छप कर ही संतोष करना पड़ा। कभी कोई रचना भेजी भी तो संपादक जी ने त्रुटि सुधार कर वापस कर दिया। उसके बाद समझ गई कि इन पत्रिकाओं में छपने वाले, दूसरी दुनिया के लोग होंगे बिल्कुल फिल्मी सितारों जैसे। सो लिखने का आनंद तो नहीं, पर पढ़ने का खूब आनंद उठाया। लेकिन जैसे ही अलादीन के चिराग की तरह फेसबुक का प्लेटफार्म हाथ आया, मन बाग – बाग हो गया। बस एक बार तर्जनी से घिसो और जिन्न की तरह आपकी रचना फेसबुक पर प्रकट हो जाती और पूछती है , “क्या हुक्म है मेरे आका!” मैं कहती हूँ ,”लाइक्स और कमेंट्स की बौछार चाहिए।”
फिर क्या जिन्न लग जाता है अपने काम में और मैं छोड़ देती हूँ अपना काम, हर एक लाइक और हर एक कमेंट दिल में फूल खिला देता है। कमेंट का जवाब शुरू किया नहीं कि तीन उछल- कुद करते हुए बिंदुओं पर नजर चली जाती है …. इतनी देर! फिर गेस करती हूँ ,” कौन कमेंट कर रहा है!” लो आ गया कमेंट! अब धन्यवाद ज्ञापन। लेकिन इस बार मिले अलादीन के चिराग के कुछ शर्तें भी हैं , केवल चिराग को एक बार घिसने से काम नहीं चलेगा, आपको अपनी उंगलियों को दूसरे की पोस्ट पर भी घिसनी होती हैं। एक और शर्त, जो बहुत अच्छे और रुचिकर लिखने वालों पर नॉट एप्लीकेबल है, वह यह है कि आपकी रचनाएं छोटी होनी चाहिए, बस एक नजर में पढ़ने लायक। बड़ी रचनाएं लोग नहीं पढ़ते, यदि आपका मित्रों से परस्पर लेन देन का व्यवहार बना हुआ है, तो आपकी औकात के अनुसार लाइक्स और कमेंट्स तो पक्का मिल जाएंगे, लेकिन कमेंट की सीमा, बधाई, अच्छा, सुंदर तक। फेसबुक की भी अपनी भाषा है और कुछ शब्द है जो यूनिवर्सल ट्रुथ के समान हैं, जैसे बढ़िया, बधाई, सुंदर, अच्छा इनमें से ज्यादा शब्द आप बेहिचक इस्तेमाल कर सकते हैं। उसमें बस ऊपर की लाइन देखनी होती है कि यह रचना प्रकाशित हो चुकी है कि नहीं, यदि प्रकाशित है तो बधाई, और नहीं तो बाकी सब विशेषण। कुछ ज्यादा बुद्धि के लोग दूसरे के कमेंट्स पढ़कर जो सबसे कॉमन वाला होता है वही डाल देते हैं। इन परिस्थितियों में अगर मैं कहूं कि मैं बिना पढ़े कमेंट नहीं लिखती हूं तो आप जरूर कहेंगे, “बड़ी आई दूध की धुली”
तो आप मुझे भी इसी बिरादरी में शामिल समझिए, मैं बुरा नहीं मानूंगी। लेकिन कभी-कभी मेहनत से लिखी मेरी रचना कोई सचमुच पढ़कर कमेंट करता है तो मैं अपने आप को धन्य मानती हूँ। इसमें लोगों का दोष नहीं, खुद भी अगर मैं ईमानदारी से रिश्ते निभाऊं तो इस काम के लिए शायद दो से तीन घंटों की आहुति देनी पड़ेगी । अब आंख और समय की अपनी सीमाएं हैं.. इसलिए बहुत बार अच्छी रचनाएं भी पढ़ने से चुक जातीं हूँ। हम छोटे मोटे लोगों की रचना फेसबुक पर छप जाती है तो बहुत से दिग्गज साहित्यकार हमें हिकारत की भाव से देखते हुए ‘फेसबुकिया रचनाकार’ का टैग दे देते हैं। अरे भाई ‘रचनाकर’ ही तो हैं ‘फेसबुकिया’ ही सही कोई अपराधी तो नहीं । ऐसा ही कुछ सोचते हुए एक दिन मेरा दिल फेसबुक को कोटिशः धन्यवाद ज्ञापन कर रहा था, कि मेरे दिमाग का जिन्न बाहर आ गया और कहने लगा “अरे लेखिका महोदया लिखना तो सही है, पर, कभी-कभी अच्छे साहित्य पढ़ भी लिया करो, अपने गड़बड़- सड़बड़ लेखन से फेसबुक को क्यों मजाक का पात्र बनाती हो।” मुझे दिमाग की सलाह सही लगी, लिखना तो अच्छी बात है लेकिन अच्छा साहित्य पढ़ने में क्या बुराई है, कम से कम हमारा लेखन का स्तर तो सुधरेगा फिर ‘फेसबुकिया लेखक’ का टैग अवश्य ही एक सम्मान की बात होगी । आइए हम सब लिखने के साथ-साथ अच्छा साहित्य पढ़ने की भी आदत डालें।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here