आत्ममंथन

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आत्ममंथन
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—-विजय गुंजन
अन्तस्तल में पल रहे कोमल मनोवृत्तियों का उद्रेक है गीत । मानवीय संवेदनाएँ जब हताहत होती हैं , वेदना जब चीखती है , सपने जब टूटते और बनते हैं तो जन्म लेता है गीत ! प्रकृति की कोमल- कान्त छटाएँ जब अपने इंद्रधनुषी सौंदर्य बिखेरती हैं तब अभिभूत हो मन गुनगुनाने और बुनने लगता है गीत। गीत हर धड़कन में है , प्रकृति के कण-कण में है और मानव की हर रागात्मक चित्तवृत्तियों में ।
वतुतः आदिकाल से ही साहित्य की मुख्य धारा कविता रही है और कविता की सबसे गंभीर और नैसर्गिक विधा गीत ।
घनीभूत कोमल मनोभावों का संस्पर्स तथा सौंदर्य बोध ही गीत विधा की विशिष्ट पहचान है । इसने अनादि काल से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के विस्तार को अपने ताने बाने की डोर से बाँध रक्खा है । अखण्डित मौन तथा उसमें सन्निहित सुदुस्तर रहस्यों में पैठकर मर्म को गह पाना भी गीत-सृजन से ही सम्भव है ।
गीत में वो सामर्थ्य है जो अंधकार के घने आवरण को चीरकर प्रकाशपुंज का आधिपत्य स्थापित कर सकता है ।
कविता का कोमल और नैसर्गिक पक्ष है गीत । गीत आदमी की हर धड़कन में हर साँस और उच्छ्tवासों में बास करता है । आदमी के जीवन का आदि – मध्य और अंत गीतों की गंध से सुवासित है । आदमी जब जन्म लेता है तो गीत गाया जाता है , मध्य भाग के विविध आयामों व अनुष्ठानों में गीत की महती भूमिका होती है और जब आदमी के जीवन का अंतिम क्षण आता है तब भी गीत उसकी अंतिम परिणति का साक्षी होता है ।
तात्पर्य यह कि मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही गीतमय है । प्रकृति का पूरा ताना-बाना ही गीतात्मक रागानुवृत्तियों से आवेष्ठित है ।
मानवीय संवेदनाओं का सुकोमल भाव-पक्ष व सौंदर्य बोध ही गीत की चेतना और प्रवृत्ति है । सच कहें तो यति-गति-लय और छांदस विधानों से हटकर कविता की परिकल्पना व्यर्थ और निरर्थक है । अति प्राचीन काल से ही हमारे यहाँ काव्य सृजनहित एक विशाल और समृद्धशाली पिंगल शास्त्रीय व्यवस्था रही है जिसके विरुद्ध विदेशियों की वक्रदृष्टि 1939 से ही षड्यंत्र का ताना-बाना बुनने में तत्पर रही है और आज भी यत्किंचित वह क्रम जारी है । कारण चाहे जो भी रहा हो , प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक ने हमारी कला-संस्कृति और साहित्य की मूलभावना को विकृत करने में उनका भरपूर सहयोगार्थ अपनी रुचि बनाए रखी है ।
विभिन्न साहित्यिक व सांस्कृतिक सरकारी संस्थानों पर भी उन तथाकथितों ने एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत अपना वर्चस्व बनाए रक्खा और हमारी समृद्ध छांदस काव्य परम्परा के साथ छेड़- छाड़ कर उसकी मूल अवधारणा व रचना-प्रक्रिया की प्रकृष्टता तथा उत्तमोत्तम विधानों को क्षति पहुंचाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी ।
महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के समय में ” छंद भंग करो ” आंदोलन को हवा दी गई । छंद-विधानों के साथ भरपूर छेड़छाड़ हुआ । ” महाप्राण ” की छत्रछाया में छांदस प्रवृत्तियों को खारिज करने की भरपूर कोशिश हुई । लालच में पड़कर कई नामचीन छंदधारा के कवियों ने भी खूब रोटियाँ सेकीं । प्रसिद्धि तो उनको छांदस रचनाओं से मिली पर प्राप्त उस प्रसिद्धि को उन्होंने अपने निजी स्वार्थसाधनहित भुनाते हुए आगे आनेवाली छांदस प्रवृत्तियों की पीढ़ी की तनिक भी चिंता नहीं की । कविता का नैसर्गिक और कोमल पक्ष गीत के पन्थ को प्रतिबंधित किया गया , उसे पारंपरिक और पुरातन कहकर एक सिरे से नकार दिया गया। कुछ नामचीन पुरोधाओं/आलोचकों ने कविता में छंद की अनिवार्यता को खत्म करने की घोषणा करते हुए नई कविता की पुरजोर वकालत की । निराला जी ने तो छंद के सख़्त विधानों को थोड़ा ढीला करते हुए ” मुक्त छंद ” की अवधारणा को स्थापित किया जिसमें गति और प्रवाह को बरकरार रखा गया । बाद में उनके चेलों ने कविता से गति और प्रवाह को भी निष्कासित कर कविता को ही छंद से मुक्त कर दिया तथा निरे गद्य को ही कविता की आख्या प्रदान कर डाली । कविता का मृदुल तत्व गीत की नैसर्गिकता और पुरातन श्रेष्ठता के लिए यह प्रदोष काल था । ऐसी ही विषम परिस्थिति में जो नई कविता ने गीत के समक्ष छद्म साम्य और समाजवाद जन्य चुनौतियाँ रखीं ,उससे डंटकर सामना करने के लिए ही गीत से अपृथक व समस्त सामाजिक-आर्थिक तथा राजनैतिक विसंगतियों को स्वयं में आत्मसात कर नवगीत ने जन्म लिया । गीत के इस बदले नए तेवर और कलेवर ने अपने नए-नए बिम्ब-विधानों, अभिनव प्रयोगों तथा पौराणिक व अधुनातन तात्विक दिग्दर्शनों को बड़ी ही कुशलता पूर्वक जनसाधारण की आम फ़हम भाषा में साधारण से साधारण लोगों तक पहुँचाया । इसके कथ्य और शिल्प तथा उक्ति वैचित्रय ने जहाँ एक ओर बुद्धिवादियों को हतप्रभ और चमत्कृत किया तो वहीं दूसरी ओर आम पाठक को भी हर्षित-प्रफुल्लित और आनन्दित कर अपनी ओर आकृष्ट भी किया । वर्तमान में अब गीत और नवगीत में कोई अंतर न रहा । मिला-जुलाकर कहें तो गीत ने अपने पारंपरिक और नैसर्गिक पक्ष को सुदृढ रखते हुए स्वयं में अधुनातन मानवीय संवेदनाओं व उसके सम्पूर्ण मनोवृत्तियों को समाहित कर निरन्तर सृजन-पन्थ पर गतिमान है । अब गीतों में सामान्य जन की चिंता के साथ-साथ समय के सच की स्वीकार्यता भी प्रबल रूप से प्रतिबिंबित हो रही है , अपनी रागात्मक तथा लयात्मक खूबसूरती से छटपटाती संवेदनाओं को जन-मानस के पटल पर अंकित कर गीत खूब चर्चित व प्रतिष्ठित हो रहा है ।
। आज छंद-हीन नई कविता गीत के लिए चुनौती नहीं वरन् गीत ही नई कविता के लिए चुनौती बनकर उसका मुंह चिढ़ा रहा है ।
सम्प्रति गीत जनमानस की भावनाओं के प्रकटीकरण का सशक्त माध्यम है ।

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