साहित्य सम्मेलन में जयंती पर दोनों साहित्यिक विभूतियों को दी गई काव्यांज

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हिन्दी साहित्य की धरोहर हैं गया के दो काव्य-तपस्वी ‘रुद्र’ और ‘वियोगी’

पटना डेस्क (मालंच नई सुबह) पटना, ३ नवम्बर। गया के दो काव्य-तपस्वी महाकवि मोहनलाल महतो ‘वियोगी’ और छंदों के मर्म -स्पर्शी गीतकार रामगोपाल शर्मा ‘रुद्र’ हिन्दी साहित्य की धरोहर हैं। ‘वियोगी जी आधुनिक हिन्दी साहित्य के निर्माताओं में से एक और बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों में अग्र-पांक्तेय थे। उनकी साहित्यिक-प्रतिभा, अद्भुत काव्य-कल्पनाएँ और विपुल-लेखन अचंभित करते हैं। गद्य और पद्य पर समान अधिकार से लिखने वाले और साहित्य की सभी विधाओं को समृद्ध करने वाले वे हिन्दी के अतुल्य साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपने विपुल साहित्य में, मानव-जीवन को मूल्यवान बनाने के अमूल्य सूत्र दिए हैं। ‘वियोगी’ जी पर वैदिक-साहित्य का गहरा प्रभाव था। वहीं रुद्र जी मनुष्य के कोमलतम भावों और अंतर्द्वंद्वों के मर्मस्पर्शी चित्रकार थे। वे तन-मन से कवि थे।उनको पढ़ना और सुनना गीत की अभिराम-यात्रा की भाँति सुखद है।
यह बातें बुधवार को, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में, आयोजित जयंती-समारोह एवं कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, लेखन में दिव्यता लेखक की आंतरिक प्रतिभा से आती है। इन दोनों ही साहित्यकारों में जो पर्वत समान ऊँचाई और सागर-सी गहराई दिखाई देती है, वह उनकी स्तुत्य-साधना और गहन-गंभीर चिंतन के कारण है। वियोगी जी ने सम्मेलन के अध्यक्ष पद को भी सुशोभित किया।
सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्र नाथ गुप्त, साहित्यमंत्री डा भूपेन्द्र कलसी, अम्बरीष कांत, डा वीयंय कुमार विष्णुपुरी तथा ई अशोक कुमार ने भी अपने विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर कवि कौसर कोल्हुआ कमालपुरी के हिन्दी काव्य-संग्रह ‘काव्यांगनाँ’ का लोकार्पण भी किया गया।
कवि-सम्मेलन का आरंभ चंदा मिश्र ने वाणी-वंदना से किया। फिर तो कविता की ऐसी धारा फूटी कि, अंधेरा गहराने तक कविगण और श्रोता उसमें डूबते उतराते रहे। आह-आह और वाह-वाह के साथ तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। वरिष्ठ कवि और सम्मेलन के उपाध्यक्ष मृत्युंजय मिश्र ‘करुणेश’ ने अपनी अनुभूतियों को इस तरह व्यक्त किया कि “पाँव रस्तों से रिश्ते निभाते रहे/ ज़िंदगी में कई मोड़ आते रहे/ यूँ हवाओं ने फिर-फिर बुझाया तो क्या/ हम चरागों को फिर-फिर जलाते रहे।”

डा शंकर प्रसाद ने अपने ख़याल का इज़हार इन पंक्तियों से किया कि,- “मैं चाहता भी यही था वो बेवफ़ा निकले/ उसे समजाहने का कोई तो सिलसिला निकले”। शायरा शमा कौसर ‘शमा’ ने कहा कि “मुसलसल चोट दिल पर खा रही हूँ/ न पूछो कैसी लज्जत पा रही हूँ। परेशां ज़ुल्फ़ जैसी ज़िंदगी है/ बड़ी मुद्दत से मैं सुलझा रही हूँ।”

वरिष्ठ कवि राश दादा राश का कहना था कि “स्वयं से ही चल कर घर जाऊँ/ स्वयं को ही मिल न पाऊँ।” कवयित्री डा अर्चना त्रिपाठी, डा शालिनी पांडेय, ओम् प्रकाश पाण्डेय प्रकाश, जय प्रकाश पुजारी, कमल किशोर ‘कमल’, चितरंजन लाल भारती, डा उमा शंकर सिंह, पंकज प्रियम, कुंदन आनंद, राम विनय पाण्डेय, अर्जुन प्रसाद सिंह, चंद्रविंद सिंह ‘चंद्रविंदु’ आदि कवियों ने भी अपनी रचनाओं से कवि-सम्मेलन को सार्थक किया।

इस अवसर पर, चंद्रशेखर आजाद, सुरेंद्र चौधरी, जितेंद्र प्रसाद, मंजू देवी, प्रणब कुमार समाजदार, अमित कुमार सिंह समेत बड़ी संख्या में प्रबुद्धजन उपस्थित थे। मंच का संचालन कवि सुनील कुमार दूबे ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।

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