दिल वालों की दिल्ली में बंजारें

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प्रियांशु त्रिपाठी

पसीने से भींगे कपड़े पहने, पीठ पर सामान का बोझ लिए, आँखों में कुछ सपने छिपाये, कंधों पर जिम्मेदारी सजाये और दिल में थोड़ी उम्मीद लिए कुछ मुसाफ़िर राजधानी दिल्ली में कदम रखते हैं, शहर अंजान नहीं था और ना ज़्यादा परिचित कुछ लोग इसकी खुबियों को बेहतर जानते थे और कुछ लोग जो ये जानने यहाँ आये थे कदम से कदम मिलाते हुए मेट्रो की ओर बढ़ जाते हैं और उत्तमनगर में आशियाना ढूंढ कर एक नये सफ़र की शुरुआत करते हैं । आशियाने में दो कमरे आस पास ही मिले और खाना घर के जैसा ही समझे । उस दिन ठके हम चैन से सोने की कोशिश करते है और नींद कमाल की आती है । अगले दिन हमें पीयूष सर से मिलने जाना था, पीयूष सर नाम पहचाना सा था, चेहरा देखा हुआ था मगर उनकी छत्रछाया में ज़िंदगी जीने की बारी थी । हम चार किषभ, तोशवंत और अरविंद वक्त से पहले तैयार होकर सर से मिलने निकल पड़ते हैं । द्वारका 13 में पीयूष सर का आफ़िस है जिसे ढूंढने में थोड़ी तकलीफ़ हुई मगर संजू सर से कॉल पर बात कर हम पहुँच गए । थोड़ी झिझक थी, डर था पर वो कहते है ना खुदा आपके मन मुताबिक हर काम तो नहीं करता मगर वो आपके उम्मीद से बेहतर करता है । ये मुलाकात पीयूष सर से पहली मुलाकात थी और मिलकर हमने अपने आगे आने वाले दिनों से उम्मीद बहुत बढ़ गई । ज़िंदादिल लहजा, विश्वास से लबरेज़ आँखें , वो बेजोड़ विनम्रता , गुफ़्तगू में वो ठहराव और नेतृत्व के धनी पीयूष सर जो पहले दिन ही एक दोस्त की भूमिका में बात करके आपस की दूरी कम कर दी, जिससे हमें अपनी कमज़ोरी पर और बेहतर काम करने का मौका मिलेगा । सर से ये पहली मुलाकात पहली तो थी मगर ये मुलाकात निश्चित कर चुकी थी कि ये आखिरी नहीं होगी । सर ने सोमवार से सभी को आना को कहा और हम चार फिर उत्तमनगर की ओर निकल जाते हैं ।

सोमवार की सुबह मेरी, तोशवंत और राहुल की नींद जल्द खुल जाती है और बाकी तीन लोग भी थोड़ी देर बाद बिस्तर से ब्रेकअप कर लेते है । पहले दिन जोश सब में था, हमें 9:45 बजे द्वारका कोर्ट में खुद की हाज़िरी लगानी थी और तोशवंत और मेरे साथ जो लोग रहते हैं अकसर ऐसा होता है कि मन या बेमन से लोग वक्त पर तैयार हो ही जाते हैं यहाँ भी कुछ ऐसा हुआ और हम सब 9:15 बजे कोर्ट में दाख़िल हो चूके थे । काले सफेद रंग में उलझी सिमटी ज़िंदगी जिसमे लोग इंसाफ़ से रंग भी भरते है और कुछ रिश्ते सुने भी हो जाते हैं । मेरी माने तो कानून इंसाफ़ नहीं करते बस दस्तावेजों के सहारे औपचारिकता निभाता है । कोर्ट रूम की ओर बढ़ते हुए कुछ एहसास पुराने भी थे मगर सच कहे तो द्वारका कोर्ट हमारे बिहार के कोर्ट के मुकाबले काफ़ी बेहतर लगा । कुछ वक्त बाद संजू सर और अनिश सर वहाँ आते है और उनसे पहली बार मुलाकात होती है । नेहा मैम, हिमान्शी मैम से भी सीखना का मौका मिलने को था । आशीष और किशभ कोर्ट नं 204 में घूम रहे थे, राहुल और अरविंद 301 में और मैं और तोशवंत 307 में चक्कर काँट रहे थे । कोर्ट की प्रकिया देखने और सीखने के साथ कुछ जो मेरी नज़रों में बार बार खटक रहा था वो था वो आये दो साल, पाँच साल के बच्चें और कुछ आम लोग जो इन कानूनी प्रकिया से वाकिफ़ नहीं है मगर उलझे हुए हैं । वहाँ कोर्ट परिसर में गुनहगार भी आते हैं और बच्चों पर उस माहौल का नकारात्मक असर भी होता होगा मगर वो क्या है ना कानून के पन्नों से बढ़कर रिश्ते भी नहीं होते । दुःख तो इसी बात है कि कानून समाज को सुधारता नहीं है बस नाकाम कोशिश करता है, तलाक के लिए आये लोगों की ओर से वकीलों के द्वारा दिया दलील वो रिश्ता बचा नहीं पाता है बस सिर्फ़ रोटी की फिक्र करता है जो अपनी उन्नति में तो कारगर है मगर समाज के लिए नहीं । उन तलाक का असर बच्चों के भविष्य पर क्या होता होगा इसकी चिंता को कानून के रखवालों को भी नहीं है वो दिल की नहीं पन्नों की सुनते है, जिन्हें जज़्बात और इंसान से ज़्यादा दस्तावेज़ पर भरोसा रहता है । ये हो भी क्यों ना हमारी ज़िंदगी भी सिर्फ़ दस्तावेज़ के सहारे ही चल रही हैं एक मेट्रो कार्ड और दूसरा कॉलेज आइडी कार्ड । खैर कुछ वक्त बाद कोर्ट से तीन लोगों के आफिस जाने का वक्त हो जाता हैं और तीन घर की ओर । कुल मिलाकर हम सब सफ़र में है जैसे आप हमारे साथ इस दिल्ली के सफ़र में है, इंतज़ार करिये सफ़र की और बातें जल्द पढ़ने को मिलेंगी क्योंकि कुछ वक्त मुसाफ़िर अभी राजधानी की गलियों में भटकते रहेंगे ।।

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