प्राचीन भारतीय राजनय और वृहतर भारत की गौरवगाथा” (भाग 7 )

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–डॉ नीता चौबीसा,’

कोरिया से वृहत्तर भारतीय संस्कृति ने जापान में प्रवेश किया। जापान भारत सांस्कृतिक संबंधो की शुरुआत का लिखित प्रमाण 5

52 ई. का है जब कोरियन सम्राट ने जापानी शासक को जो भेंट भेजी। वास्तव में बौद्ध ग्रंथो की भाषा संस्कृत होने से संस्कृत भारत और जापान के मध्य संस्कृत भाषा ने महत्वपूर्ण कड़ी का कार्य किया और वृहत्तर सांस्कृतिक भारत की स्थापना को महत्ती कार्य में महत्वपूर्ण योगदान भी दिया। इस प्रकार व्यापारियों, शिक्षकों, राजदूतों और धर्म प्रचारकों के माध्यम से भारतीय संस्कृति का प्रसार द्वीपान्तर तक हो गया।

वृहत्तर भारत और श्रीलंका :
श्रीलंका और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में भारतीय संस्कृति के बीज इस तरह पड़े कि आज भी विशाल वट वृक्ष की भांति परिलक्षित होते है। ईसा-पूर्व पहली शताब्दी में व्यापारी उज्जैन, मथुरा, काशी, प्रयाग, पाटलीपुत्र आदि नगरों से और पूर्वीतट के मामल्लपुरम् ताम्रलिप्ति, कटक, पुरी, रामेश्वरम् तथा कावेरीपत्तनम् से इन देशों के लिए चलते थे। इन व्यापारियों ने सांस्कृतिक राजदूतों की भूमिका का भी निर्वाह किया और बाहरी दुनिया से व्यापारिक – सांस्कृतिक सम्बन्ध भी बनाए। श्रीलंका को भारत का सांस्कृतिक उपनिवेश बनाने का वर्णन रामायण काल से ही मिलता हालांकि कतिपय विद्वान यह सम्भावना व्यक्त करते है कि उस समय की लंका और यह श्रीलंका अलग अलग हों किन्तु हाल की नासा की व श्री लंका की पुरातात्विक अन्वेषणों ने इस सम्भावना को भी खारिज कर दिया है।नासा ने श्रीलंका व भारत के मध्य समुद्र के भीतर डूबे हुए प्राचीन पांच से सात हजार वर्ष पूर्व बने सेतु की तस्वीरें जारी करते हुए सम्भावना को मान लिया है कि यही वह रामसेतु रहा होगा जिसकी चर्चा रामायण में होती रही है।कालन्तर में मौर्यकाल में सम्राट अशोक ने बौद्ध-धर्म के प्रचार के लिए अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को बुद्ध के संदेशों के प्रचार कार्य के लिए श्रीलंका भेजा। उनके साथ अन्य कई विद्वान् भी गये। ऐसा कहा जाता है कि वे अपने साथ बोधगया से बोधिवृक्ष की एक शाखा भी काट कर ले गये जो वहाँ लगाई गई। उस समय श्रीलंका में देवानाम्पिय तिस्स नामक राजा था। भारत से जो लोग गए, उन्होंने मौखिक रूप से ही बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार किया। प्रायः दो सौ वर्षों तक श्रीलंका में लोगों ने महेन्द्र द्वारा सिखाए गए शास्त्रों के उच्चारण को संभाल रखा। सबसे पहले महाविहार और अभयगिरि नामक बौद्ध विहारों का निर्माण हुआ। उस समय से आज तक श्रीलंका बौद्ध धर्म का एक सशक्त केन्द्र रहा है। श्रीलंका के लोग पालि भाषा का साहित्यिक भाषा के रूप में प्रयोग करने लगे। श्रीलंका में दीपवंश और महावंश बौद्धधर्म के विख्यात स्रोत हैं।सिंहली स्थापत्य पर उत्तर भारत की स्थापत्य कला का भी प्रभाव दिखता है। श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रवेश ईसापूर्व तीसरी शताब्दी में हुआ था और यहाँ के स्थापत्य पर बौद्ध धर्म का उल्लेखनीय प्रभाव है। श्रीलंका का प्राचीन स्थापत्य मुख्यतः धार्मिक स्थापत्य था। बौद्ध मठों की २५ से अधिक शैलियाँ देखने को मिलतीं हैं। जेतवनरमय तथा रुवानवेलिसय के स्तूप उल्लेखनीय भवन हैं। सिगिरिया का राजमहल प्राचीन स्थापत्य का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसी प्रकार, यपहुआ का दुर्ग तथा टूथ का मंदिर भी अपने वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध हैं।तिस्स (तिष्य) लगभग 250 ई. पू. से 211 ई. पू. तक ‘सिंहलद्वीप’ (श्रीलंका) का राजा था।सम्राट अशोक के पुत्र राजकुमार महेन्द्र और राजकुमारी संघमित्रा तिस्स के आमंत्रण पर ही श्रीलंका गए थे।इन दोनों ने श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया था।तिस्स अपने नाम के साथ “देवनांप्रिय” (देवताओं का प्रिय) जोड़ता था।क्योंकि सम्राट अशोक भी अपने नाम के साथ देवनांप्रिय जोड़ते थे, इसी कारण से तिस्स ने भी इस नाम को धारण किया था।तिस्स और मौर्य सम्राट अशोक में अत्यन्त सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध थे, तथा श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रसार में उसने बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान किया।तिस्स ने ‘अनुराधपुर’ की नींव डाली थी, जहाँ बोधगया से ले जाकर परम् पवित्र बोधिवृक्ष आरोपित किया गया।दक्षिण भारत के महान पल्लव व चोल सम्राटो के भी श्री लंका से गहरे व्यापारिक सम्बन्ध रहे।कालांतर में कइयो ने तो सिहल द्वीप पर विजय भी प्राप्त की।राजाराज चोल प्रथम दक्षिण भारत के चोल साम्राज्य के महान चोल सम्राट थे जिन्होंने ९८५ से १०१४ तक राज किया। उनके शासन में चोलों ने दक्षिण में श्रीलंका तथा उत्तर में कलिंग तक साम्राज्य फैलाया। राजराज चोल ने कई नौसैन्य अभियान भी चलाये, जिसके फलस्वरूप मालाबार तट, मालदीव तथा श्रीलंका को आधिपत्य में लिया गया।उनके काल मे भारतीय संस्कृति का प्रचार प्रसार श्रीलंका में हुआ।वृहतर भारत का प्रभाव ऐसा पड़ा कि ताम्रपर्णी में जो सिंहलवासी पहले-पहल श्रीलंका में आकर बसे थे, वे अपने पूर्व निवास उत्तर-पश्चिम भारत से हिंदू धर्म का लोकप्रिय प्रकार लेते आए थे। बाद में कलिंग तथा बंगाल से आने वाले ब्राह्मणों ने वहाँ वैष्णव तथा शैव धर्मों का प्रचार किया। बौद्ध धर्म का प्रचार तीसरी शदी में थेरा महेंद्र व संघमित्रा का असीम योगदान ने किया।एक डीएनए शोध के अनुसार श्रीलंका में रह रहे सिंहल जाति के लोगों का संबंध उत्तर भारतीय लोगों से है। सिंहल भाषा गुजराती और सिंधी भाषा से सम्बद्ध है।

श्रीलंका का इंटरनेशनल रामायण रिसर्च सेंटर और वहां के पर्यटन मंत्रालय ने मिलकर रामायण से जुड़े ऐसे पचास स्थल ढूंढ लिए हैं जिनका पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व है और जिनका रामायण में भी उल्लेख मिलता है।श्रीलंका में वह स्थान ढूंढ लिया गया है, जहां रावण की सोने की लंका थी। ऐसा माना जाता है कि जंगलों के बीच आज भी रानागिल की विशालकाय पहाड़ी पर रावण की गुफा है, जहां उसने तपस्या की थी। रावण के पुष्पक विमान के उतरने के स्थान को भी ढूंढ लिया गया है।रावण के चार हवाई अड्डे थे -उसानगोड़ा, गुरुलोपोथा, तोतूपोलाकंदा और वारियापोला जिसमें से एक उसानगोड़ा हवाई अड्डा जो वह व्यक्तिगत उपयोग में लेता था,हनुमान द्वारा लंका दहन के वक्त जल कर नष्ट हो गया था। इसके अलावा वहां अशोक वाटिका, राम-रावण युद्ध भूमि, रावण की गुफा, रावण के हवाई अड्डे, रावण का शव, रावण का महल और ऐसे लगभग पचास रामायण कालीन स्थलों की खोज करने का दावा ‍किया गया है।डॉ विद्याधर के शोध “रावण की लंका” के अनुसार -1971 में एक बौद्ध भिक्षु द्वारा रानागिल के घने वनों के बीच एक सर्वोच्च पर्वत शिखर पर बने सुदृढ़ किले में रावण का शव अपनी पूर्व अवस्था में अब भी एक 17 फ़ीट के ताबूत में सुरक्षित रखा हुआ है जिस पर मिस्र की ममियों की भांति कोई रासायनिक लेप लगा है।बाकायदा इसके साक्ष्य भी प्रस्तुत किए गए हैं।अंतरिक्ष एजेंसी नासा का प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर रामायणकालीन हर घटना की गणना कर सकता है। इसमें राम को वनवास हो, राम-रावण युद्ध हो या फिर अन्य कोई घटनाक्रम। इस सॉफ्टवेयर की गणना बताती है कि ईसा पूर्व 5076 साल पहले राम ने रावण का संहार किया था।

वर्तमान में श्रीलंका में लगभग सित्तर प्रतिशत बौद्ध और बारह प्रतिशत हिंदू रहते है।श्रीलंका में एक पर्वत है जिसे श्रीपद चोटी भी कहा जाता है। अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान इसका नाम उन्होंने एडम पीक रख दिया था। हालांकि इस एडम पीक का पुराना नाम रतन द्वीप पहाड़ है। इस पहाड़ पर एक मंदिर बना है। हिन्दू मान्यता के अनुसार यहां देवों के देव महादेव शंकर के पैरों के निशान हैं इसीलिए इस स्थान को सिवानोलीपदम (शिव का प्रकाश) भी कहा जाता है।इस पर्वत के बारे में कहा जाता है कि यह पह वही वह पर्वत है, जो द्रोणागिरि का एक टुकड़ा था और जिसे उठाकर हनुमानजी वहां ले गए थे।वृहतर भारत की परंपरा में श्रीलंका में हिंदू और बौद्ध धर्म की साझा परंपरा और संस्कृति पल्लवित हुई।श्रीलंका में हिंदू धर्म के शैव मत का प्रचलन हुआ।मान्यनुसार श्रीलंका को शिव ने बसाया था अतः यहां उनके पांच निवास स्थानों का घर माना जाता है। मुरुगन अर्थात शिव के पुत्र कार्तिकेय यहां के सबसे लोकप्रिय हिंदू देवताओं में से एक हैं। इनकी पूजा न केवल तमिल हिंदू करते हैं बल्कि बौद्ध सिंहली और आदिवासी भी करते हैं।इस प्रकार केवल ऐतिहासिक काल से ही नही वरन रामायण काल से ही श्री लंका से भारतीयों के राजनैतिक सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे है।यही वह धुरी रही जिस पर वृहतर भारतीय संस्कृति का विशाल वट वृक्ष पनप सका जिसकी एक मजबूत शाखा श्री लंका में रही।इसी सनातन वृहतर भारत के प्रचार प्रसार के कारण ही यहां आज भी कई ऐसे मंदिर हैं जो हिन्दू और बौद्धों की साझा संस्कृति को दर्शाते हैं

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