—- राज प्रिया रानी
छलक रहा है मधुमास पवन में ,
बरस रही कहीं बारूद चमन में।
चीख वतन के आंखों से पी कर,
निकला हुजूम हथियार थाम कर।
भीख दया का न मिला मांग पर ,
शर्तो के हाशिए खड़ा है मोड़ पर।
इतिहास दोहराता सदी का दस्तूर,
तूफ़ानों से लड़ना अकेला मजबूर।
कफ़न की आश नहीं है किसी को,
यही दरख्वास्त नहीं हार कभी हो।
सुंदरियों ने ठाना चलना बारूद पर,
कुर्बान हों गर हम तो इसी भूमी पर।
मासूमों को छोड़ा बिलखते अकेले,
सुलगते आशियाने को कैसे समेटे।
राख से धुएं की उम्मीद न करना,
युद्ध से प्रलय का आगाज न करना।