मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

साहित्य

मजबूर

मजबूर

मेरी यादाश्त बहुत कमजोर हो गई है,
न जाने क्यों?
अपने अतीत से एक पल तक नहीं खोज पा रहा हूँ ,
मैं जब उसे भूल पाया हूँ।
जबकि है मालूम मुझे उसे याद रखना
अधिक पीड़ादायक है भूलने से।
उसकी याद में है छुपी यह बात कि
पिता ने ही झोंका था उसे वेश्यावृति में।
नहीं ढूंढ पा रहा हूँ मैं ,
उस एक पल को जब उसे भूल पाया हूँ
अपनी उस मजबूर मुँह- बोली…
लेकिन थी नही वह मजबूर कभी
इतनी भी कमजोर नही है यादाश्त मेरी,
किया था वादा उसने
मेरी पत्नी के सामने की बात है यह
दिलाया था विश्वास उसने
अगर झोंकी जाएगा माता पिता के द्वारा गंदगी में ,
बताएगी सब आकर वह
बताना तो दूर मेरी जानकारी को भी रोकती रही डिजिटल हैकिंग से, ब्लॉकिंग से,झूठे पोस्ट से।
मजाक उड़ाती रही वाल पर वह।
रोक कर मुझे ,आनंद उठती रही डिजिटल वेस्यवृत्ति के खेल का वह
नही मजबूर नही थी वह फरेब में खिलाड़ी है वह।
सामने से नही पीठ में खंजर मार है उसने
लांस कैंसर के प्राथमिक स्तर तक पहुंचाया है उसने
बच तो गया मैं ?फायदा क्या?
नही मजबूर नही है वह
पराकाष्ठा की नीच है वह

-––––––––—–-नीरव समदर्शी

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