स्वाति शशि
डीट्रॉइट,यू०एस ०ए०
जन्म के बाद पहला संस्कार छठी का ही होता है जो जन्म के छठे दिन संपन्न किया जाता है। वस्तुतः नौ महीने गर्भ में रहने के उपरांत शिशु जब बाहर की दुनिया में रोशनी में आता है तो उसकी आंखें चौंधियाती रहती हैं। उसका शरीर शिथिल रहता है। उसकी सुसुप्त इंद्रियों को जागृत करने के लिए छट्ठी संस्कार की परंपरा है। मान्यता यह भी है कि शिशु के जन्म के बाद मां के वक्ष से दूध उतरने में तीन से चार दिन लग जाते थे। इसीलिए छट्ठी की रात को ही बच्चे को विधिवत दूध पिलाने की रस्म निभाई जाती है। तभी तो हिंदी भाषा और साहित्य में “छठी का दूध” एक मुहावरा भी बन गया।
छट्ठी की तैयारी
आवश्यक सामग्री
- पीला कपड़ा (मां और बच्चे दोनों का) 1-1.25 मीटर
2. पीला धागा (बच्चे के हाथ, पैर और कमर में बांधने के लिए तैयार किया जाता है, जिसमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर गाँठ भी दिया जाता है।)
3. लकड़ी का पिढ़िया (बैठने के लिए लकड़ीकी बनी चौकोर वस्तु)
4. दीया (जिनकी संख्या 4 हो)
5. डलिया (बाँस की बनी हुई हुई, जिसमें सामान रखा जा सकता है)
6. चावल (करीब 1 किलोग्राम)
7. पैसा (10 सिक्के)
8. बाँस का बना पंखा (1)
9. कलम (लकड़ी की) और दवात (लाल रंग की स्याही भरा हुआ)
10. थालियाँ (2)
11. लकड़ी का एक छोटा डंडा
12. सिंदूर - काजल (काजल एक खास विधि से बनाई जाती है, जो आगे विस्तार से बताई गई है)
14. गोबर का एक मारकंडेय (आदमी के स्वरूप का बनता है)
15. पान के पत्ते (6)
16. पीली लहठी (लाह की चूड़ी) का एक सेट
17. पीली साड़ी
18. पीला ब्लाउज
19. पीला पेटिकोट
20. अरवा चावल
21. दूब (दुर्वा घास)
22. हल्दी - गुड़
- अदरककाजल बनाने की विधि
हम छट्ठी की विघि विस्तार से बताएँ, उससे पहले काजल बनाने की विधि समझ लीजिए। जिस रोज छट्ठी होती है, उससे एक दिन पहले या फिर उसी दिन सुबह या दिन में एक दीये में कपड़े की एक बाती बनाकर उसमें घी लगा दिया जाता है और उसे जलाया जाता है। एक कजरौटे (काजल रखने का लोहे का बना हुआ सामान) को खोल कर उसमें थोड़ा-सा घी या सरसों तेल लगा कर जलते हुए दीये के ऊपर रख दिया जाता है जिससे उसका धुआं उस पर राख बनकर जमा हो जाता है। फिर उसको एक जगह इकट्ठा करके थोड़ा-सा सरसों तेल या एक बूंद घी मिला दिया जाता है। यही सामग्री काजल कहलाती है। हालांकि, आजकल काजल बाज़ार में भी मिलता है।
छट्ठी की विधि
सुबह/दिन का विधान
हज्जाम या नाई छट्ठी के दिन अपने उस्तरे या नेल कटर से बच्चे को स्पर्श कराएगा। और बच्चे की माँ के हाथ-पैर के नाखून काटेगा। इसके बाद माँ और बच्चे दोनों को अच्छी तरह से साबुन-शैंपू के साथ नहलाया जाएगा। फिर हज्जाम या नाई ही माँ के हाथों की उंगलियों में नेल-पॉलिश (लाल रंग) और पैरों की उंगलियों में आलता (लाल रंग) लगाएगा। इसके लिए नाई को पैसे और भोजन भी दिए जाते हैं। कहीं-कहीं तो खुशी में कपड़े भी देते हैं।
शाम/रात का विधान
बच्चे की मां को पीले वस्त्र (साड़ी, पेटिकोट, ब्लाउज) और पीली लहठी – सबक़ुछ पीला-पीला ही पहनाया जाएगा। माँ का सुंदर शृंगार भी किया जाएगा। इसके बाद मां और बच्चे दोनों का पैर लाल रंग के आलता से रंगा जाएगा। फिर पहले से तैयार गाँठ वाले धागों को माँ सिर्फ अपने गले में पहनेगी। माँ का खोइँछा (आँचल में चावल, हल्दी, दूब और पैसा) भी भरा जाएगा।
फुआ या मौसी बच्चे को उबटन लगाकर, तैयार करके नये कपड़े (या पीले कपड़े, जिनके यहां नये कपड़े पहनाने की परंपरा ना हो) पहनाएगी और काजल भी लगाएगी। बच्चे के गले, हाथ, पैर और कमर में गांठ वाले पीले धागे पहनाए जाएंगे। बच्चे की आंखों, माथे, हथेली और तलवे में काजल लगाया जाएगा। और काजल लगानेवाली महिला को उपहारस्वरूप कपड़े भी दिए जाएंगे।
बैठने के लिए लाई गई लकड़ी की पिढ़िया को धोकर उसपर पीठार (पीसे हुए अरवा चावल का पेस्ट जैसा) से गोल-गोल फूल जैसी आकृतियों की अर्पणा की जाती है और उनपर सिंदूर के टीके लगा दिए जाते हैं। पिढ़िया दीवार से सटी होगी। इसपर ठीक बीच में गोबर के मारकंडेय (चित्रगुप्त भगवान का एक रूप) रखे जाएंगे। और उसके बगल में दीया, कलम और दवात रखा रहेगा।
मारकंडेय के सामने 6 जगह पान के पत्तों (टहनी लगे) को बिछाया जाएगा। उनपर 6 जगह मिठाई, अरवा चावल, गुड़ और अदरक रखे जाएंगे (जैसे भगवान के सामने प्रसाद रखा जाता है)।
भोजन की थाली – छट्ठी उत्सव के लिए विशेष प्रकार का भोजन भी पकाया जाता है। चावल, दाल, सब्ज़ी, पूरी, मिठाई, करही-बरी, दही, पापड़, कम से कम 6 प्रकार का तरुआ (सब्जियों को बेसन के पेस्ट में मिलाकर तलकर पकाया जाता है), आटे की रोटी (गेहूँ, बाजरा, मकई, मड़ुआ इत्यादि) – जो भी खाना चाहें, पका सकते हैं। छठ्ठी के दिन खाने में सब तरह के आटे की रोटी (गेहूँ, बाजरा, मकई, मड़ुआ इत्यादि, जितना हो सके, उसके अनुसार), चावल, दाल, करही-बरी, सब्ज़ी, मछली (शाकाहारी परिवारों में मछली नहीं पकता) और 6 तरह का तरुआ ज़रूर पकेगा। भोजन की सभी सामग्री को एक थाली या दो थाली में सजाकर, कटोरी और ग्लास में पानी डालकर ढककर रख दिया जाता है।
जिनके घर माता दुर्गा की पूजा होती है, वहाँ दुर्गाजी के षष्ठी रूप की तस्वीर पूरब दिशा की दीवार पर लगा देनी चाहिए। माता दुर्गा का षष्ठी रूप बच्चे के लिए कल्याणकारी माना जाता है। दुर्गाजी की तस्वीर के नीचे पूरब दिशा की ही दीवार पर सफेद कागज चिपकाकर उस पर सिंदूर की 6 और काजल की 6 खड़ी लाइन खींची जाएगी। (एक लाइन सिंदूर की और फिर एक लाइन काजल की)
छट्ठी की विधि प्रक्रिया
पिढिया पर रखे दीये को जला देना है। बच्चे को पीले कपड़े में पूरी तरह लपेटकर (ढँककर) पिढ़िया के सामने चारों दिशा में 3 बार घुमा देना है, जैसे आरती की लौ घुमाई जाती है। ध्यान रहे कि बच्चा जलता हुआ दीया ना देखने पाए। बाँस के पंखे को पिढ़िया के नीचे जमीन पर रखकर उसपर थोड़ा (10-12) धान डालकर बच्चे को उस पर सुला देना है। बच्चे का सिर पूरब और पैर पश्चिम दिशा में आए। और इसके बाद दीये को बुझा देना है।
बच्चे को मारकंडेय के सामने रखकर भगवान चित्रगुप्त से उसके स्वस्थ और सौभाग्यशाली जीवन की प्रार्थना करनी है। इसके बाद लकड़े के छोटे डंडे से धातु की थाली को जोर-जोर से पाँच बार पीटना है ताकि बच्चा सुन सके। फिर बच्चे को पंखे से दो बार उठाकर पंखे पर रखना है और तीसरी बार में पंखे से उठाकर गोदी में ले लेना है।
इसके बाद कलम पकड़कर दवात में डुबोकर उससे बाँस के पंखे पर या कॉपी पर माँ अपने बच्चे का हाथ या उंगली पकड़ कर ॐ, श्री, राम जैसे पवित्र शब्द लिखवाएगी। यह प्रचलन सिर्फ कायस्थ लोगों में है, पर कोई भी कर सकता है। कलम-दवात नहीं रहने पर लाल रंग के बॉल पेन या जेल पेन से लिखा जा सकता है और गाय के गोबर या नदी की मिट्टी से दवात जैसी आकृति बनाकर पेन को उसपर रख सकते हैं।
इसके बाद माँ और बच्चे को छोड़कर सब लोग उस घर से बाहर चले जाएँगे। एकांत में बच्चे को गोद में लेकर माँ खाना खाएगी। और इसके बाद सभी लोग बच्चे को आशीर्वाद और नेग देंगे। इस प्रक्रिया में इस्तेमाल किया गया चावल और पैसा हज्जाम को दान कर दिया जाता है।
कहीं-कहीं छट्ठी के दिन ही नामकरण भी किया जाता है।
माना जाता है कि बच्चा छट्ठी के दिन जिस पीले कपड़ा में लपेटा जाता है वह बहुत शुभ होता है। भविष्य में जब कोई परीक्षा या कोई कठिन समय आता है तो बच्चे को उस कपड़े का स्पर्श कराया जाता है उसके पास रख दिया जाता है। बच्चे के पिता जातकर्म संस्कार की रस्म भी इसी दिन निभाते हैं।