मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

बिहार के सात शहीद

बिहार के सात शहीद

रेखा भारती मिश्रा

आजादी के गौरवमयी इतिहास में बिहार की भी अग्रणी भूमिका रही है। महिला से पुरुष तक , साहित्यकार से कामगार तक इस आजादी की लड़ाई में कोई भी अपना योगदान देने में पीछे नहीं रहा । कम या ज्यादा सभी की भूमिका महत्वपूर्ण रही । आज मैं जंग-ए-आजादी में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाले और मातृभूमि के लिए स्वयं को बलिदान करने वाले बिहार के वीर युवा सपूतों को याद करूंगी ।

पटना में सचिवालय भवन के बाहर हमने एक प्रतिमा अवश्य देखी होगी जिसमें सात युवा गिरते-पड़ते तिरंगा हाथ में थामे आगे बढ़ रहे हैं । यह कोई कल्पना शक्ति से तैयार प्रतिमा नहीं बल्कि अतीत के गर्भ से निकलती वास्तविकता की प्रकाश पुंज है । यह प्रतिमा उन सात युवाओं की याद में स्थापित है जिन्होने सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अपना बलिदान दिया ।

11 अगस्त 1942 का वह दिल दहला देने वाला और पीड़ा से भर देने वाला दिन जो इतिहास के पन्ने में आज भी दर्ज है जिसे याद करके हम सभी की आंखें नम हो जाती है । “अंग्रेज़ो भारत छोड़ो आंदोलन” की आग पूरे देश में फैल चुकी थी । यह आंदोलन बिहार में भी अपनी सशक्त लहर बना चुकी थी । हर व्यक्ति स्वतंत्रता पाने की जंग में कूद पड़ा था । भारत छोड़ो आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर अनुग्रह नारायण सिंह पटना में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की कोशिश कर रहे थे । इस दौरान अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें तथा अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया तो इस गिरफ्तारी के विरोध में पटना के सात युवाओं ने मिलकर इसी सचिवालय भवन पर तिरंगा फहराया ।

बिहार की मिट्टी के ये सात वीर सपूत तिरंगा थामे चल पड़े थे निडर और बेखौफ । उनके कदम सचिवालय भवन की तरफ बढ़ते जा रहे थे । इनका नेतृत्व देवीपद चौधरी के जिम्मे था । उस समय देवीपद चौधरी की उम्र मात्र चौदह वर्ष थी और वे मिलर हाईस्कूल में नौवीं कक्षा के छात्र थे । जमालपुर के सिलहट से संबंध रखने वाले देवीपद तिरंगा हाथ में थामे बढ़ते जा रहे थे ।इस कम उम्र में भी उनका जोश सबपर भारी था । वे साहस और दृढ़ता के साथ अपने छ: साथियों को लेकर बढ़ रहे थे कि अंग्रेज शासन की पुलिस उन्हें रोकने की कोशिश करती है । लेकिन वे कहां रूकने वाले थे उनके कदम अग्रसर हो रहे थे सचिवालय भवन की तरफ । तभी पुलिस की बंदूक से गोली चलती है और देवीपद घायल होकर गिरने लगते हैं । उनको गिरते देख रामगोविन्द सिंह आगे बढ़ते हैं । रामगोविन्द सिंह पटना के दशरथा से संबंध रखते थे और वो भी नौंवी कक्षा के छात्र थे ।

अब अभियान का नेतृत्व रामगोविन्द सिंह करते हैं और हाथ में तिरंगा थामकर आगे बढ़ते हैं । तभी पुलिस उन्हें गोली मार देती है । तिरंगा उनके हाथ से नीचे गिरने को होता है लेकिन ऐसे वीर सपूतों के रहते तिरंगे का गिरना भला कैसे संभव हो सकता है । रामानंद सिंह जो पटना के धनरूआ से थे और राममोहन राय सेमिनरी में नौवीं कक्षा के छात्र थे वे तुरंत आगे बढ़कर तिरंगे को थाम लेते हैं लेकिन वे भी गोली का शिकार हो जाते हैं । रामानंद को गिरते देख सारण जिले के दिघवारा निवासी राजेन्द्र सिंह आगे बढ़ते हैं और तिरंगा थाम लेते हैं ।

बड़ा हीं करूण मगर ओजस्वी दृश्य । करूण इसलिए ऐसे रणबांकुरे मातृभूमि के लिए अपनी जान को कुर्बान कर रहे थे । ओजस्वी इसलिए क्योंकि ऐसे दुखद और कष्टमय परिस्थिति में भी वे सभी तिरंगे को गिरने नहीं दे रहे थे । उन्हें देखकर यही प्रतीत हो रहा था कि जबतक उनके अंदर सांस की एक भी लड़ी बची रहेगी तबतक तिरंगा गिर न पाएगा , उनके हाथों में लहराता हीं रहेगा और अंतिम सांस चलने तक वे इसे फहराने का प्रयास करते रहेंगे ।

राजेन्द्र सिंह भी अधिक समय तक तिरंगा नहीं थाम पाते हैं और अंग्रेज पुलिस उन्हें भी अपनी गोली का निशाना बना लेती है । घायल राजेन्द्र सिंह के हाथों से तिरंगा गिरता देख जगतपति कुमार बढ़कर तिरंगे को थाम लेते हैं । औरंगाबाद के जगपति बिहार नेशनल कॉलेज में द्वितीय वर्ष के छात्र थे । जगपति तिरंगे को ऊपर रखने की भरपूर कोशिश करते हैं । उधर पुलिस की गोलियां भी इन्हें अपना निशाना बनाती रहती है ।

जगपति कुमार को कुल तीन गोलियां लगी एक गोली उनके हाथ में तो दूसरी उनकी छाती में लगी थी । तीसरी गोली ने उनके जांघ को अपना निशाना बनाया था । लहुलुहान जगपति इस परिस्थिति में भी तिरंगे को झुकने नहीं देते हैं । ओह… इस दृश्य को भला शब्दों के दायरे में कैसे बांधा जा सकता है । जगपति के दायित्व को अपने कंधे पर लेते हुए भागलपुर निवासी और पटना कॉलेजिएट स्कूल में दसवीं के छात्र सतीश झा तिरंगे को लेकर आगे बढ़ते हैं लेकिन वे भी पुलिस की गोलियों का निशाना बन जाते हैं । सतीश झा वहीं पर शहीद हो जाते हैं मगर वे तिरंगे को गिरने नहीं देते । सातवे वीर उमाकांत जिनकी आयु मात्र पंद्रह वर्ष थी और ये भी नौंवी कक्षा के छात्र थे , आगे बढ़कर तिरंगे को थाम लेते हैं । पुलिस इन्हें भी अपनी गोलियों का निशाना बनाती है । गोलियों से घायल उमाकांत के कदम फिर भी नहीं रूकते और वे आगे बढ़ते हुए सचिवालय भवन के गुंबद पर तिरंगा फहरा हीं देते हैं । तिरंगा फहराने के बाद उन्होंने अपनी आखिरी सांसें ली और अभियान के सभी शहीदों के साथ शहीद हो गए ।

15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तब बिहार के राज्यपाल श्री जयराम दास दौलतराम ने बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. श्री कृष्ण सिन्हा की उपस्थिति में इस शहीद स्मारक की आधारशिला रखी । मूर्तिकार देव प्रसाद राय चौधरी ने इस प्रतिमा का निर्माण किया । प्रतिमा बनने के बाद इसका अनावरण 1956 में आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने किया ।

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