न्यायिक चेतना से ही पुलिस अपराधी करण की रोकथाम

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प्रणव प्रियदर्शी

सह सम्पादक नव भारत टाइम्स

पुलिस बल की यह आपराधी मानसिकता किसी भी सभ्य लोकतांत्रिक समाज की एक बड़ी समस्या होती है। इसलिए पुलिस बल के ऊपर दो तरह का अंकुश रखा जाता है। पहला है न्याय तंत्र का अंकुश। जैसे ही कोई मामला अपराधी आरोपी के पकड़े जाने के बाद अदालत में पहुंचता है उसका प्रभाव अदालत के हाथों में आ जाता है। वहां ना केवल अपराधी के कृत्य की बल्कि पुलिस बल द्वारा उठाए गए कदमों की भी समीक्षा होती रहती है।

पुलिस का काम अपराध की रोकथाम करना है, उसे नियंत्रित रखना। अपराध उन्मूलन की ना तो उससे अपेक्षा की जा सकती है और ना ही यह उसके वश की चीज है।कारण यह है कि अपराधियों से लगातार संपर्क में रहते और उनकी गतिविधियों को नियंत्रित करने की कोशिश करते हुए उसके अपराधिकरण की प्रक्रिया भी साथ-साथ चलती रहती है। इस क्रम में जहां अपराधियों की अलग-अलग किस्मों में से कुछ तो अत्यधिक खतरनाक, कुछ को कम खतरनाक, कुछ को सह तो कुछ को क्षम्य मानने की भावना विकसित होने लगती है। वहीं कुछके साथ लगाव या स्वार्थ भी जुड़ जाता है। मगर इन सबसे ज्यादा बड़ी समस्या यह है कि उसके सोचने समझने का ढंग भी अपराधियों जैसा ही बनने लगता है।

पुलिस बल की यह अपराधी मानसिकता किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक समाज की एक बड़ी समस्या होती है। इसलिए पुलिस बल के ऊपर दो तरह के अंकुश रखा जाता है। पहला है न्याय तंत्र का अंकुश। जैसे ही कोई मामला अपराधी आरोपी के पकड़े जाने के बाद अदालत में पहुंचता है उसका प्रभार अदालत के हाथों में आ जाता है। वहां ना केवल अपराधी के कृत्य की बल्कि पुलिस बल द्वारा उठाए गए कदमों की भी समीक्षा होती रहती है। दूसरा अंकुश है लोकतांत्रिक नेतृत्व का। नागरिकों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की सरकार के नेतृत्व और उसकी देखरेख में ही पुलिस बल को अपना काम करना होता है।

उम्मीद की जाती है कि इन दोनों अंकुश के रहते पुलिस बल की अपराधी मानसिकता का इलाज भी साथ-साथ होता रहेगा। उसमें लोकतांत्रिक और न्यायिक चेतना का संचार होता रहेगा। जो उसकी मानसिकता में आते प्रदूषण की सफाई करती रहेगी।

समस्या यह है कि यह दोनों अंकुश खुद भी प्रदूषण का शिकार हो जाते हैं। न्याय तंत्र की समस्याओं से तो हम सब परिचित है ही। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत आने वाली सरकार में भी विभिन्न अपराधों के पहुंचने की आशंका लगातार बनी रहती है। जब कभी ऐसे अपराधी मानसिकता वाले तत्व विधायिका या कार्यपालिका तक पहुंचते हैं लोकतांत्रिक और न्यायिक चेतना के लिए खतरा पैदा हो जाता है। इस अपराधी मानसिकता को पता है कि इसके वजूद के लिए खतरनाक अगर कोई चीज है तो यह चेतना ही है।

सो उसका पहला काम होता है पुलिस बल की अपराधी मानसिकता का गौरव गान करना। उसके जिन कृत्यों और कुकृत्यों व्यक्तियों की जांच होनी चाहिए जिनके लिए उसे सजा मिलनी चाहिए उनकी यह नेतृत्व तारीफ करता हैउन्हें पुरस्कृत करता है।

कहने की जरूरत नहीं है कि इससे ना केवल पुलिस बल अपराधी गिरोह की तरह काम करने लगता है। बल्कि पूरे समाज में अपराधीकरण की प्रक्रिया भी काफी तेज हो जाती है। उसकी लोकतांत्रिक चेतना कमजोर पड़ने लगती है। समाज में न्याय का आग्रह समाप्त होने लगता है। ऐसे समाज के भविष्य की कल्पना सहज ही की जा सकती है लेकिन इसकी पड़ी किसे है ना तो वह चुना हुआ नेतृत्व इससे परेशान होता है ना ही अपराधिक राह पकड़ चुका पुलिस बल    चिंता तो यह समाज के विचार शील तत्वों की ही होनी चाहिए, होती भी है। पर यह तत्व वैचारिक खेमों में बंटे होने की वजह से अक्सर एकजुट होने में देर लगा देते हैं। यही सबसे बड़ा खतरा सबसे बड़ा दुर्भाग्य होता है, किसी भी लोकतांत्रिक समाज का पुलिस सुधारों की वकालत करने वाले कई अन्य लोगों का इस बारे में कहना है कि पुलिस जितना अपराधियों के समीप रहती है उससे कहीं अधिक राजनेताओं के भी और राजनेताओं में गुंडे अपराधी और नेताओं की दोहरी भूमिका रहती है। इसलिए पुलिस पर नेताओं का असर अधिक असर रहता है। इसलिए खादी और खाकी का साथ चोली दामन का माना जाता है। पुलिस को ईमानदारी का पाठ पढ़ाना है तो सबसे पहले पुलिस प्रशासन को नेताओं के कब्जे से मुक्त करना होगा।

इस बारे में मेरी राय यह है कि नेता जैसे चुन कर आ रहे उन में खराबियां बहुत सारी है लेकिन एक ऐसी अच्छाई भी है जिसका कोई विकल्प नहीं है। और यह है उनका लोगों द्वारा चुना होना। अगर आप पुलिस को निर्वाचित नेतृत्व से मुक्त करेंगे तो परोक्ष ही सही समाज का जो नियंत्रण  उस पर है वह खत्म हो जाएगा। फिर आप उसे किसी भी संस्था या एजेंसी के नियंत्रण रखें वह अलोकतांत्रिक ही होगा उस पर समाज की धड़कनों का उसमें आते अच्छे विचारों का कोई प्रभाव नहीं रह जाएगा।‌ उसके जनविरोधी होते चरित्रिक में बदलाव की उम्मीद करने का कोई आधार नहीं रह जाएगा।

इसलिए मेरा यह सुविचारित और स्पष्ट मत है कि पुलिस को नेताओं के नियंत्रण से मुक्त करने की सोचने के बजाय नेतृत्व को ज्यादा जिम्मेदार उत्तरदायी और जनता को ज्यादा सजग बनाने पर ध्यान देना चाहिए।

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