स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी सेनानियों का योगदान

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सलिल सरोज

आदिवासी समाज स्वतंत्र संस्कृति का वाहक रहा है इसीलिए उसे किसी का उसके इलाके में जबरन घुसपैठ पसंद नहीं। आदिवासियों का मानना है कि उनके इलाके में कोई भी आये उसका स्वागत है लेकिन वहाँ रहकर अगर उनके जल-जंगल व ज़मीन को छीनने का प्रयास करे तो उन्हें पसंद नहीं। कुछ लोग आदिवासियों के खिलाफ भ्रामक प्रचार करते हैं कि आदिवासी किसी को अपने इलाके में आने नहीं देना चाहते। जबकि यह बात समझने का प्रयास बहुत कम लोग करते हैं अगर किसी के घर में जाकर कोई उसके घर को हड़पने की कोशिश करे तो यह किसी को भी पसन्द नहीं आएगा। फिर यह बात सभी पर लागू होती है न कि सिर्फ आदिवासियों पर। यही वजह थी कि अंग्रेज जब आदिवासी इलाक़ों में घुसपैठ करते हुये झारखंड पहुंचे और वहां आदिवासियों की जमीनों की हड़प नीति अपनाए और धर्म परिवर्तन कराना शुरू किये तो आदिवासी जिस तरह से स्थानीय ज़मींदारों व सामन्तों के खिलाफ मुखर होकर लामबंद हुये थे उससे भी ज़्यादा विद्रोही रुप में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दिया। उसका नारा था कि “अबुआ दिशुम अबुआ राज यानि हमारा देश हमारा राज”। यह अब्राहम लिंकन के नारे के ही समान है कि “जनता की सरकार जनता के द्वारा जनता के लिए”। बिरसा के अलख से जगह-जगह आदिवासी एकत्रित व संगठित होने लगे और तीर कमान के विद्रोह से देखते ही देखते पूरे झारखंड से अंग्रेजी सरकार के पैर उखड़ने लगे। इस सेना में आदिवासी पुरुषों के साथ महिलाएं भी कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रही थीं। घबराई अंग्रेजी सरकार ने बिरसा मुंडा को पकड़ने के लिए 500 रुपये का ईनाम रखा। जिसके परिणाम स्वरूप जनवरी 1900 में जब बिरसा उलिहातू के नजदीक डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे, एक आदिवासी की मुखबिरी के कारण अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हें चारो तरफ से घेर लिया। अंग्रेजों और आदिवासियों के बीच लड़ाई हुई। औरतें और बच्चों समेत बहुत से लोग मारे गये। अन्त में बिरसा 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये और कई दिनों की यातना देने के बाद उन्हें 9 जून सन 1900 में रांची की जेल में ही जहर देकर मार दिया गया।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी समाज की अहम भूमिका रही है, पूरे देश में लाखों आदिवासियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाया है। भारत की सभ्यता निर्माण से लेकर आज तक के भारत में आदिवासी समाज की जो महती भूमिका रही है। जब मंगल पांडेय से भी पहले 11 फरवरी 1750 में सुल्तानगंज जिला भागलपुर में जन्में तिलखा माझी सन् 1784 में क्रांति का बिगुल बजा चुके थे। बाबा तिलका मांझी ने ऑगस्टस क्लीवलैंड, ब्रिटिश कमिश्नर [लेफ्टिनेंट] को राजमहल पर गुलेल से जान से मार दिया था। परिणामस्वरूप 1784 में अंग्रेजी सरकार उन्हें पकड़ने के बाद घोड़े की पूंछ में उन्हें बांधकर भागलपुर के अंग्रेजी आवास के चारो तरफ घुमाया गया और अंत में बरगद के पेड़ में टांगकर उन्हें शहीद कर दिया गया। उस वक्त मंगल पांडेय का जन्म भी नहीं हुआ था। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल स्वतंत्रता सेनानियों में कई दलित, बहुजनों, आदिवासी महिला सेनानियों ने भी एक अहम भूमिका निभाई थी लेकिन इनका ज़िक्र हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में बेहद कम देखने को मिलता है। आदिवासी वीरों का जब नाम लिया जाता है तो भगवान बिरसा मुंडा का नाम सबसे ऊंचा है। 19वीं सदी में, 24 वर्ष की आयु में ही ब्रिटिशों के खिलाफ किया गया उनका उलगुलान उन्हें एक अलग पायदान पर खड़ा करता है। साथ-साथ 1784 में ब्रिटिशों और ज़मींदारों के खिलाफ तिलका मांझी के विरोध और बलिदान भी अविस्मरणीय हैं।

आदिवासियों के द्वारा चालित विद्रहों में सर्वप्रथम संथाल विद्रोह का नाम आता है जिसकी अगुवाई सिदो, कान्हू, चांद, भैरव, उनकी बहन फूलो और झानो मुर्मू ने 1855 में की। यह विद्रोह आज के झारखंड और बंगाल राज्य के पुरुलिया और बांकुरा में हुआ था। अंग्रेज़ों और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ यह विद्रोह हुआ था। जब आदिवासी खेती करते, तो जमींदार उन्हें इतने ऊंचे स्तर पर ब्याज़  देते कि वे उसे कभी चुका नहीं पाते। इसके बाद उन्हें बंधुवा श्रम (बोंडेड लेबर) की तरह रखते। इसी के खिलाफ यह विद्रोह किया गया था। जब 1855 में विद्रोह की चिंगारी भड़की, तब 20,000 आदिवासियों ने आज़ादी के लिए संघर्ष किया। इसी तरह के अन्य आंदोलन में, अल्लुरी सीतारमण राजू ने रम्पा आंदोलन की  शुरुआत की। 1882 में अंग्रेज़ सरकार द्वारा जो मद्रास फॉरेस्ट एक्ट लागू किया गया था, उसी के खिलाफ यह आंदोलन था। इस एक्ट के अनुसार आदिवासियों का जंगल में प्रवेश और जंगल की चीज़ों का इस्तेमाल वर्जित था। यह आंदोलन पूर्वी गोदावरी, विशाखापत्तनम और मद्रास के इलाकों में फैला था। स्थानीय लोग राजू को “मन्यम वीरूडू” कहते थे जिसका मतलब है, “जंगल का नायक”।इस विद्रोह का प्रमुख कारण मनसबदारों की मनमानी, उनका भ्रष्टाचार और समाज में जंगल कानून का व्याप्त होना था।

इन आन्दोलनों में महिलाओं ने भी जम कर हिस्सा लिया और अपना नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज करवाया। इन वीरांगनाओं में से कुछ जिन्होनें पूरी ताकत से उपद्रवी और सामंती व्यवस्था का विरोध किया, उनका जिक्र आगे हैं। ये महिलाएं उन समुदायों से तालुक्क रखती हैं जिन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से कभी बराबरी के अधिकार नहीं दिए गए। लेकिन इन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी के खिलाफ लड़ाई लड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चाहे वह ब्राह्मणवाद हो या अंग्रेज़ों की सत्ता, ये महिलाएं हर दमनकारी व्यवस्था से आज़ाद होने की चाहत और हौसला रखती थी। इन महिलाओं की गाथा किताबों, कहानियों में हमेशा जीवित रहनी चाहिए तभी मौजूदा भारत सही मायनों में आज़ाद भारत की परिभाषा को पूर्ण करेगा।

कूयिलि शिवगंगा की रानी वेलु नचियार की सेनाध्यक्ष थी। वेलु नेचियार उन पहले सम्राटों में से एक थी जिन्होंने 1780 के दशक में अग्रेज़ों से लोहा लिया था। अंग्रेज़ों के खिलाफ इस युद्ध में कूयिलि ने अपने राज्य के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। कूयिलि के चाहने वाले उन्हें एक वीर योद्धा के रूप में याद करते हैं। कूयिलि का जन्म एक गरीब दलित परिवार में हुआ था। उनके पिता रानी के लिए एक जासूस के रूप में काम करते थे जिसके ज़रिए कूयिलि वेलु नचियार के करीब आई। उन्होंने कई बार रानी वेलु रचियार के प्राणों की रक्षा की जिसके बाद उन्हें रानी के अंगरक्षक के रूप में तैनात किया गया और आगे चलकर वह महिला सेना की सेनाध्यक्ष बनी। जब शिवगंगा के महल पर अंग्रेज़ों का हमला हुआ तब उन्होंने वीरता के साथ उनका सामना किया। कूयिलि और उनकी सेना ने अंग्रेज़ों के हथियार छिपाकर उन्हें सकते में डाल दिया। सिर्फ इतना ही नहीं, कूयिलि ने अंग्रेजों के हथियार के जखीरे को बर्बाद करने के लिए अपने शरीर को तेल में डुबोया और आग लगा ली। एक दलित महिला के रूप में उनकी वीरता और जिस बहादुरी के साथ उन्होंने अंग्रेज़ों का सामना किया उसे हमेशा याद किया जाना चाहिए।

झलकारी बाई को हमेशा रानी लक्ष्मीबाई की सबसे विश्वसनीय सलाहकार और साथी के रूप में याद किया जाता है। झलकारी बाई एक कोरी जाति से तालुक्क रखने वाली एक दलित योद्धा थी। उन्होंने साल 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। झलकारी बाई का जन्म 2 नवंबर, 1830 में झांसी के निकट स्थित एक गांव में हुआ था। एक उत्पीड़ित जाति से होने के कारण झलकारी बाई को बुनियादी शिक्षा से वंचित होना पड़ा था लेकिन उन्होंने घुड़सवारी और हथियार चलाने की शिक्षा ज़रूर ली। छोटी उम्र से ही वह अपने आस-पास डकैतों और जगंली जानवरों से लड़ने की कहानियां सुनती आई थी। झलकारी बाई की वीरता और उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने उन्हें अपनी महिला सेना में शामिल किया जहां अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए झलकारी बाई को बंदूक चलाना और तोप चलाना सिखाया गया। रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई की कद-काठी काफी मिलती-जुलती थी इसलिए झलकारी बाई ने रानी का वेश धरकर लड़ाई भी लड़ी। उन्हें युद्ध और उसे जुड़े नतीजों के बारे में अच्छे से पता था लेकिन उन्होंने अपने फैसले के बारे में दोबारा नहीं सोचा और दुश्मनों से लड़ने के लिए उनके ही कैंप में चली गई। झलकारी बाई की मौत की वजह आज तक स्पष्ट नहीं है, इसके इर्द-गिर्द कई कहानियां गढ़ी गई हैं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में भी झलकारी बाई का उल्लेख बेहद कम देखने को मिला क्योंकि दलित महिला स्वतंत्रता सेनानियों का इतिहास बमुश्किल ही दर्ज किया गया है।

दलित स्वतंत्रता सेनानी उदा देवी और उनकी वीरांगनाओं ने सन् 1857 की लड़ाई के दौरान वीरता के साथ ब्रिटिश साम्राज्य का सामना किया था। उदा देवी ने बेगम हज़रत महल से गुज़ारिश की थी कि वह उन्हें एक सेनानी के तौर पर शामिल करें और उन्हें एक महिला सेना तैयार करने की इजाज़त दें। उदा देवी का जन्म अवध (अब उत्तर प्रदेश) के एक छोटे से गांव में हुआ था। वह पासी जाति से तालुक्क रखती थी। आज भी हर साल 16 नवंबर को पासी समुदाय के लोग स्वतंत्रता संग्राम में उदा देवी के संघर्ष और योगदान का जश्न मनाते हैं। उन्हें लोग एक बहादुर दलित महिला के रूप में याद करते हैं जिसने पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद दोनों का ही सामना किया और उसे पराजित किया।

हेलेन लेपचा का जन्म साल 1902 में सिक्किम के नामची के एक छोटे से गांव सांगमू में हुआ था। ब्रिटिश साम्राज्य में रह रही हेलेन महात्मा गांधी के चरखा आंदोलन से बेहद प्रभावित हुई थी। साल 1920 में बिहार में आई भीषण बाढ़ के दौरान उन्होंने राहत कार्य में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उनके काम से प्रभावित होकर महात्मा गांधी ने उन्हें साबरमती स्थिति अपने आश्रम बुलाया और उन्हें सावित्री देवी का नाम दिया। ब्रिटिश साम्राज्य सावित्री देवी के विद्रोही स्वभाव से परिचित हो गए थे इसलिए उनके खिलाफ एक वारंट जारी कर दिया। ब्रिटिश साम्राज्य के लिए सावित्री देवी कांग्रेस की सबसे वांछित नेताओं में से एक बन गई। एक बार उनके ऊपर गोली भी चलाई गई लेकिन वह बच निकली। सरोजनी नायडू, जवाहर लाल नेहरू, मोरारजी देसाई से उनके संबंध अच्छे हो गए और वे उनके साथ मिलकर काम करने लगी। असहयोग आंदोलन में भी सावित्री देवी का योगदान अहम था। उन्होंने झरिया के कोयला खदानों में काम करने वाले मज़दूरों के साथ मिलकर एक बड़ी रैली भी आयोजित की थी। असहयोग आंदोलन में लोगों की सहभागिता बढ़ाने के लिए सावित्री देवी ने घर-घर जाकर इसका प्रचार भी किया था जिसके लिए उन्हें बाद में जेल भेज दिया था। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ आंदोलन करने के साथ-साथ उन्होंने सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर भी काम करना शुरू किया और वह विभिन्न संस्थानों की अध्यक्ष भी रही।

नागाओं की रानी के नाम से मशहूर रानी गाइदिनल्यू ने महज़ 16 साल की उम्र में ही ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जारी आंदोलन में हिस्सा लिया था। रानी गाइदिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी 1915 में मणिपुर के तमेंगलोंग जिले के तौसेम उप-खंड के नुन्ग्काओ नामक गांव में हुआ था। रानी गाइदिनल्यू जीलियांगरोंग नगा समुदाय से तालुक्क रखती थी। बुनियादी शिक्षा न होने के बावजूद रानी गाइदिन्ल्यू अपने चचेरे भाई हाईपू जदोनांग के साथ मिलकर राजनीतिक आंदोलनों के संपर्क में आई। उन्होंने हेराका आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उन्होंने अपने समुदाय के लोगों को ब्रिटिश साम्राज्य को दिए जाने वाले कर के खिलाफ भी जागरूक किया था। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ उनकी बढ़ती गतिविधियों को देखते हुए ब्रिटिश अफसर उन्हें जल्द से जल्द गिरफ्तार करना चाहते थे। आगे चलकर उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य ने गिरफ्तार कर लिया था और उन्हें कोहिमा ले जाया गया था। रानी गाइदिनल्यू के साथियों में से अधिकतर लोगों को या तो मौत की सज़ा दी गई या जेल में डाल दिया गया था। करीब 14 सालों बाद उन्हें साल 1947 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद जेल से रिहा किया गया था। रिहा होने के बाद भी वह पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए काम करती रही।

पुत्तलिमया देवी पोद्दार, एक गोरखा महिला थी जिनका जन्म 14 जनवरी, 1920 को कुर्सियांग में हुआ था। उन्हें अपने समुदाय में साम्राज्यवादी और सामाजिक ढांचे के ख़िलाफ़ संघर्ष करने के लिए ख्याति प्राप्त है। जब वो महज़ 14-15 साल की थी तभी उनकी इच्छा थी कि वह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संघर्ष में कांग्रेस के साथ जुड़ जाए। साल 1936 में जब कुर्सियांग में कांग्रेस कमेटी का दफ़्तर बना, तभी जाकर पुत्तलिमया के स्वतंत्रता सेनानी बनने का सपना पूरा हो सका। हालांकि इस दौरान उनके पिता उन्हें हतोत्साहित करते रहे। उन्होंने कुर्सियांग में हरिजन समाज की भी स्थापना की थी जो दलित और शुद्रों को शिक्षा दिलाने में एक अहम भूमिका निभा रहा था। उन्होंने एक महिला संस्थान की भी स्थापना की थी जो लड़कियों को स्वतंत्रता सेनानी बनने के लिए प्रेरित और उनके अंदर देश प्रेम की भावना जगाने का काम करता था। उन्हें पुलिस की तरफ से लगातार चेतावनी दी जाती थी और पुलिस थाने भी बुलाया जाता था लेकिन इन रुकावटों के बावजूद वह अपने काम में लगी रही। 8 अगस्त 1942 के दिन कुर्सियांग में बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के कुछ दिनों बाद उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया था। भारत के आज़ाद होने के बाद भी वह बतौर समाज सेविका काम करती रहीं। उन्हें ‘समाज सेविका’ और ‘ताम्र पत्र’ जैसे सम्मान से भी नवाज़ा गया। आम लोग उन्हें ‘माताजी’ कह कर बुलाते थे। 1 दिसबंर 1984 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था।

भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची 10 राज्यों के आदिवासी इलाकों में लागू है। यह अनुसूची स्थानीय समुदायों का लघु वन उत्पाद, जल और खनिजों पर अधिकार सुनिश्चित करती है। कुछ क्षेत्रों में लोग संविधान प्रदत्त अपने इन अधिकारों को हासिल करने के लिए ग्राम सभा की मदद से स्वशासन को अंगीकृत कर रहे हैं। राजस्थान बांसवाडा जिले के डूंगरपुर में स्वायत्तता की घोषणा कर जंगल और खनिजों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। राज्य के आदिवासी इलाकों में ग्राम गणराज्य आंदोलन ने गहरी पैठ बनाई। गुरुंडा तहसील में पहले गांव गणराज्य तलैया ने 1997 में स्वायत्तता घोषित कर दी और एक तालाब को अपने नियंत्रण में ले लिया। यह तालाब वन विभाग के तहत आने वाले संरक्षित क्षेत्र में था। इससे पहले ग्रामीणों ने वन विभाग को पत्र लिखकर कहा था कि वह उन्हें तालाब का इस्तेमाल करने दे नहीं तो वे उसे अपने नियंत्रण में ले लेंगे। जब वन विभाग ने कोई कार्रवाई नहीं तो ग्रामीणों ने तालाब अपने कब्जे में ले लिया। देश में एक के बाद एक गांव विकेंद्रीकृत व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। सरकार को इतिहास से सबक लेते हुए सत्ता का विकेंद्रीकरण करना चाहिए ताकि विकास का स्वाद गांव का अंतिम आदमी भी चख सके। स्वशासन की मांग को विद्रोह नहीं कहा जाता सकता, यह तो ग्रामीणों का संविधान प्रदत्त अधिकार है। सरकार अगर अब भी नहीं चेती तो बहुत देर हो चुकी होगी।

जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में जनजातीय कार्य मंत्रालय ने घोषित किया था कि स्‍वतंत्रता संग्राम में योगदान देने वाले सेनानियों को समर्पित सभी नौ संग्रहालय साल 2022 के अंत तक अस्तित्व में आ जाएंगे। जनजातीय कार्य मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि स्‍वीकृति दिए गए नौ स्वतंत्रता सेनानियों के संग्रहालयों में से दो संग्रहालयों का निर्माण कार्य पूरा होने वाला है और शेष बचे सात संग्रहालयों के कार्य प्रगति के विभिन्‍न चरणों में है। बयान में कहा गया, ‘‘अनुमान है कि 2022 के अंत तक सभी संग्रहालय अस्तित्‍व में आ जाएंगे। इसके अलावा राज्‍यों के सहयोग से आने वाले दिनों में और नए संग्रहालयों को भी मंजूरी दी जाएगी।’’इनमें सबसे बड़ा संग्रहालय गुजरात के राजपीपला में 102.55 करोड़ रुपये की लागत से तैयार हो रहा है। अन्य संगहालयों का निर्माण झारखंड के रांची, आंध्र प्रदेश के लांबा सिंगी, छत्तीसगढ़ के रायपुर, केरल के कोझिकोड, मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा, तेलंगाना के हैदराबाद, मणिपुर के सेनापति और मिजोरम के केलसी में हो रहा है।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016में स्‍वतंत्रता दिवस के अवसर पर जनजातीय स्‍वतंत्रता सेनानियों के संग्रहालय स्‍थापित करने की घोषणा की थी।उस वक्त प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में कहा था कि सरकार की उन राज्‍यों में स्‍थायी संग्रहालय स्‍थापित करने की इच्‍छा है जहां जनजातीय लोग रहते थे और जिन्‍होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया और उनके सामने झुकने से मना कर दिया था

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