“प्राचीन भारतीय राजनय एवं वृहतर भारत की गौरव गाथा” (भाग-4)

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डॉ.नीता चौबीसा

 बांसवाड़ा राजस्थान

भारत में राजनय सिद्धान्त और वैदेशिक सम्बन्धो का प्रयोग अति प्राचीन काल से ही होता आ रहा है। महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों, राज्यो के पारस्परिक सम्बन्धों के अनेकों द्रष्टान्त मिलते हैं। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये गुप्तचरी, चालाकी, छल-कपट और धोखा आदि का अवसरानुकूल प्रयोग का परामर्श देते हैं। ऋग्वेद में सरमा, इन्द्र की दूती बनकर, पणियों के पास जाती है। पौराणिक गाथाओं में नारद का दूत के रूप में कार्य करने का वर्णन मिलता है। यूनानी पृथ्वी के देवता ‘हर्मेस’ की भांति नारद वाकपटुता, चाटुकारिता व चातुर्य के लिये प्रसिद्ध थे। वे स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य राजाओं के पारस्परिक सूचनाओ के आदान प्रदान का कार्य करते थे। वे वैदिक वांग्मय के एक चतुर राजदूत थे। इस प्रकार पुरातन काल से ही भारतीय राजनय का विशिष्ट स्थान रहा है।महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में राम ने लंका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के पूर्व अंगद को दूत बना के नीति अनुसार समझौते का पूर्ण प्रयास किया था। रावण द्वारा हनुमान के लंका दहन के कारण प्राणदण्ड के आदेश देने पर रावण के भाई विभीषण ने व्यवधान डालते हुए कहा था कि शास्त्रानुसार दूत का वध नीति विरोधी है, उसे दण्डित नहीं किया जा सकता, चाहे वह कैसा ही अपराध क्यों न करे। विभीषण को अपने पक्ष में करना तथा रावण के दरबार में गतिविधियों की जानकारी प्राप्त कर लेना, कुशल राजनयिक योग्यता का परिचायक है।शुक राक्षस द्वारा राम की सेना का भेद पता लगाने के लिये आने पर उसे पकड़ लिया गया, परन्तु राम ने उसे छोड़ दिया क्योंकि शुक ने अपने को रावण का दूत घोषित कर दिया था। इस प्रकार रामायण काल में भी दूत भेजने की प्रथा थी तथा इनका मुख्य कार्य सन्देशों का लाना, ले जाना तथा गुप्तचरी करना था। अयोध्या काण्ड में राजा दशरथ राम को परामर्श देते हैं कि राजा को दूतों के माध्यम से सत्य का पता लगाने का प्रयत्न करना चाहिये।

दूसरे महाकाव्य महाभारत के शांतिपर्व में वर्णित है कि दूतों के माध्यम से राज्य को अपने शत्रु और मित्र दोनों ही पक्षों के अभिलाषित परिणामो की प्राप्ति की जा सकती है।युद्धनीति और राजनीति में पारंगत श्री कृष्ण का दूत कार्य और संजय का दूत कार्य महाभारत काल के राष्ट्रों के श्रेष्ठ पारस्परिक सम्बन्धो के उदाहरण है।गीता के उपदेश राजनीति के उच्चतम आदर्श के रूप में देखे जाते हैं। इस समय तक राजनय विकसित हो चुका था।युद्धनीति एवं राजनीति के कृष्ण एक महान ज्ञाता थे। धर्मराज युधिष्ठिर व अर्जुन को दिये गये नीति प्रवचन, कृष्ण के योग्य एवं आदर्श राजदूत होने के द्योतक हैं। भीष्म पितामह ने दूत की योग्यताओं का वर्णन किया है।उनके द्वारा शर शैया पर अंतिम समय मे युधिष्ठिर को दिए गए राजनीतिक व शासन सम्बन्धी उपदेश और शांतिपर्व राजनय और युद्ध व शान्ति के परामर्श से भरा पड़ा है। वनपर्व में विजय प्राप्ति हेतु सभी साधन मान्य बताये गये हैं। क्षत्रिय धर्म नैतिकता के ऊपर तथा परे माना गया है। मौर्य काल भारतीय राजनय का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। इस काल में दूतों को भेजने की प्रथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का एक भाग बन चुकी थी। अन्तर्राज्यीय सम्बन्धों के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध भी विकसित हो चुके थे। दूतों का स्थायी व अस्थायी रूप से आदान-प्रदान होता था। चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में मैगस्थनीज और समुद्रगुप्त के दरबार में सिंहल राजा के दूत आये थे। इसी प्रकार भारत की ओर से चीन व रोम को दूत भेजे गये थे। इन दूतों का कार्य मूलरूप से व्यापारिक सुविधायें प्राप्त करना था। राजतरंगिणी में भी विदेशों में दूतों की नियुक्ति का वर्णन है। मैगस्थनीज की पुस्तक ‘इण्डिका’ में मौर्यकालीन भारत की राजनीतिक दशाओं का वर्णन है। बिन्दुसार के राज्य काल में सीरिया के राजा एन्टीयोकस (Antiochus) ने डायमेकस (Deimachos) नामक व्यक्ति को तथा मिस्र के राजा टोलेमी ने डायोनिसियस (Dionysius) को अपने दूत के रूप में भेजा था। सम्राट अशोक ने लंका, मिस्र, सीरिया, मैसीडोन आदि देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित किये थे तथा अपने पुत्र महेन्द्र व पुत्री संघमित्रा को धर्मदूत के रूप में लंका भेजा था। मौर्य शासकों तथा पुलकेशिन द्वितीय के फारस के राजा खुसरो परवेज के साथ तथा सम्राट हर्षवर्धन के चीन के साथ सम्बन्ध थे।हेनसांग और फाहियान ,इतसिंग जैसे कई चीनी यात्री बौद्ध धर्म के अध्ययन हेतु भारत के तत्कालीन बड़े शिक्षा संस्थानों में आए और भारत भ्रमण के विवरण लिखे और वापिस अपने देशो में लौट कर वहाँ भारतीय संस्कृति, संस्कारो,धर्म एवं व्यवस्था का प्रचार प्रसार किया।इस काल तक राजदूतों के आदान-प्रदान की व्यवस्था पूर्णतः स्थापित हो चुकी थी। इस प्रकार राजनय को राज्य शिल्प का ही एक भाग माना जाता था।इस काल तक वैदेशिक सम्बन्ध स्थापित करना भारतीय राजनय का महत्वपूर्ण आधार बन चुका था और दूतो का आदान प्रदान,विचार विनिमय,व्यापार विनिमय व वैवाहिक सम्बन्धो की स्थापना कर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का निर्वहन भारतीय राजनय का अहम हिस्सा हो गया था जिसका परम्परागत निर्वहन आगे भी क्रमशः बढ़ता गया ।इसी मजबूत नीव पर वृहतर भारत की भव्य व दिव्य गौरवशाली इमारत खड़ी हुई।।(क्रमशः)क्रमश: शेष अगले अंक में

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