प्रचीन भारतीय राजनय एवं वृहत भारत की गौरव गाथा-भाग 3

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डॉ नीता चौबीसा

प्राचीन काल मे भारतीयराजदर्शन आदर्शवादी न होकर अत्यंत व्यावहारिक रहा है।भारतीय राजदर्शन में आदर्श राज्य या ‘यूटोपिया’ सम्बन्धी काल्पनिक विचारों का सर्वथा अभाव है। जिस प्रकार पाश्चात्य जगत में प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ और सर टौमस मूर के ‘यूटोपिया’ हैं, वैसे ग्रंथ प्राचीन भारत में किसी ने ग्रँथ नहीं लिखे। इसी आधार पर यह कहना उचित होगा कि प्राचीन भारत की रचनाओं का दृष्टिकोण बहुत व्यावहारिक था, कोरा सैद्धांतिक या काल्पनिक नहीं था। ए० के० सेन ने लिखा है– ‘’हिन्दू राजनीतिक चिंतन उत्कृष्ट वास्तविकता से भरा पड़ा है और कुछ राजनीतिक अपवादों को छोड़कर भारतीय राजनीतिक विचारों का सम्बन्ध राज्य के सिद्धान्त और दर्शन से उतना नहीं है जितना राज्य की स्थूल समस्याओं से है।’’ उदाहरण स्वरूप राज्य के सप्तांगों का विचार पूर्ण रीति से व्यावहारिक ढंग से किया गया है और उसमें सेना,कोष तथा मित्र को भी अंग बताया गया है। अथवा विभिन्न राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में मण्डल का विचार, षाडगुण का विचार यथा-संधि, विग्रह आदि व्यावहारिक ढंग से किए गए हैं। राजनीति सम्बन्धी अधिकांश भारतीय सिद्धांतों को इन्ही व्यावहारिक विचारों में से खोज कर निकाला जा सकता है।भारत मे प्राचीन राजनय इतना शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के उच्च आदर्श पर स्थापित हो कर भी इतना पूर्ण एव सुदृढ़ रहा कि एक समय आते आते वृहत्तर भारत का निर्माण हो गया।आखिर वह कौनसी विशेषताए रही भारतीय राजनय में जो इतना कुछ कर पाने में हम सक्षम हो सके यह विचारणीय ही नही अनुकरणीय भी है!प्राचीन भारतीय राजनय हेतु भारतीय ग्रंथों में विशेष शब्दावली का प्रयोग मिलता है जो भारतीय राजनय की अपनी मौलिक शब्दावली है जो वर्तमान समय की पश्चिमी राजनैतिक विचारों पर आधारित शब्दावली से बिलकुल भिन्न है ।जैसे राज्य का साप्तांग सिद्धान्त, अंतरराज्य सम्बंध के चार उपाय -साम, दाम, दण्ड तथा भेद की नीति, त्रि- शक्तियाँ (सत्यगुण, रजोगुण तथा तमोगुण), कर्मफल सिद्धान्त, त्रिगुण सिद्धांत, आश्रम व्यवस्था,राजनीतिक एवं सामाजिक विषयों में अद्भुद समन्वय होना, राज्य एवं राजा की उत्पत्ति का दैवी सिद्धांत, मोक्ष की प्राप्ति राज्य का लक्ष्य होना, सांसरिक जीवन में और पारलौकिक जीवन में आध्यात्मिक एवं नैतिक आचरण, धर्मशास्त्रों के नियमों का समाज में पालक ऐसे सनातन विचार हैं जिसे सामाजिक व्यवस्था एवं राजनीतिक व्यवस्था दोनों में ही समान मान्यता दी गयी है।राजव्यवस्था में नीतिशस्थ व अर्थशास्त्र के साथ साथ दंडनीति का महत्व होना भारतीय राजनय की परिपक्वता का उदाहरण है। भारतीय दर्शन मानवीय जीवन में आसुरी प्रवित्तियों की प्रबलता को स्वीकार करते हैं और इसी कारण उनके द्वारा दण्ड की शक्ति को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। इससे भी महत्वपूर्ण,धर्म और राजनीति का घनिष्ठ सम्बन्ध भारतीय राजनय का सबसे अलग पहलू है, प्राचीन भारत में राजनीतिक सिद्धान्तों का विकास धर्म के

आने के रूप में हुआ। भारतीय विचार में धर्म एक व्यापक शब्द है। उसी कारण हिन्दू राजशास्त्र वेत्ताओं के राजनीति और धर्म एक एक दूसरे से पृथक नहीं किया। इसी कारण धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में राज्य का विचार ‘राजशास्त्र’ मे नाम से किया गया है अर्थात राजा का और प्रजा का पारस्परिक धर्म, राज्याभिषेक की विधि, राजाओं द्वारा यज्ञ करना, पुरोहित की नियुक्ति, राजकुमारों के संस्कार आदि का वर्णन है। इन धार्मिक पुस्तकों में केवल यही नहीं बताया गया है कि राजा और शासन को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए अपितु मंत्रियों, पुरोहित,सेनापतियों, दूत, न्यायधीश, कर्मचारी और सैनिकों के कर्तव्यों का भी वर्णन है। कर्तव्य और धर्म समानार्थक है, इस कारण भी राज्य सम्बन्धी विचार धर्म से प्रेरित है। इसी कारण प्राचीन भारत की राजनीति में नैतिकता का समावेश रहा और राज्यशास्त्र को नीतिशास्त्र कहकर पुकारा गया। भारतीय राजनय में राज्य एक आवश्य मूलभूत जनोपयोगी संस्था मानी गई है ,राजा देवत्व के प्रतीक फिर भी ऋग्वैदिक काल से ही यहां किसी व्यक्ति या व्यक्तिगत विचारों की अपेक्षा यथा सभा,

समिति,विदथ जैसी संस्थाओं पर विशेष बल दिया जाता था।

यहां धर्म का रक्षण राज्य का प्रमुख दायित्व था।सतही तौर पर देखने पर धर्म और राजनीतिक विचार एक-दूसरे से गुथे हुए हैं किन्तु राजनीति और धर्म के गुंथे हुए होते हुए भी धर्म कभी भी राजनीति पर हावी नही रहा केवल सहायक और पोषक तत्व बना रहा।भारतीय ग्रन्थों मे राजनीतिक विचारों की एकता और राजनय की सफलता का मूल स्रोत इसमे भी निहित है कि यहाँ राजतन्त्र की प्रमुखता व राजा के होते हुए भी राज्य के उद्देश्यों के बारे में आम सहमति आवश्यक बनी रहती थी,सर्वजन हिताय सर्व जन कल्याणार्थ के उद्देश्य से निर्णय लिए जाते थे और राज्य और राजनय का मूल आधार सप्तांग सिद्धान्त ही होता रहा जिसके अनुसार राज्य सात अंगों अथवों तत्वों से मिलकर बनता है। उसके अनुसार सात अंग अथवा प्रकृतियाँ ये हैं- स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र और यह सभी समान रूप से अधिकारों व उत्तरदायित्वों का वहन करते हैं।इन सभी मौलिक विशिष्टताओ के चलते भारतीय संस्कृति का परचम बिना किसी युद्ध के भी विदेशो तल लहराया और प्राचीन भारतीय राजनय की इन्ही खूबियों के चलते अनेक देश भारतीय संस्कृति के संस्करणों का प्रमाण बन कर उभरे जिसे वृहतर भारत की संज्ञा दी गई।(क्रमशः)

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