नारी शिक्षा और नारी सशक्तिकरण

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 मीरा श्रीवास्तव

 राजेन्द्र नगर , आरा

कहा जाता है कि ,’ नास्ति विद्यासमां चक्क्षुर्नास्ति समोगुरु ‘ अर्थात् विद्या से बढ़कर नेत्र नहीं एवं माता के समान गुरु नहीं | वेदों ने भी इस उक्ति को समर्थित करते हुए स्पष्ट कहा कि माता ही अपनी संतान की प्रथम शिक्षक होती है ; इसके पश्चात् भी वेदकालीन अपवादों से इतर नारी शिक्षा प्रत्येक काल में घोर उपेक्षा का विषय रही |

 जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व एवं महती योगदान के बावजूद भी हमारी तुच्छ और पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता ने स्त्रियों की समुचित प्रतिष्ठा का अधिकारी बनने के मार्ग में सदैव अवरोध उत्पन्न किये | इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर हमने भविष्य की अपनी यात्रा आरम्भ कर दी , किन्तु स्थिति आज भी न्यूनाधिक पूर्ववत् ही बनी हुई है | या तो काल की गति के साथ हम सामंजस्य ही बिठा नहीं पाये , या अपने वर्चस्वमोह से ग्रस्त अपनी मानसिकता में तदनुरूप परिवर्तन लाने की कल्पना हमारे गले नहीं उतर पाई | स्त्रियों का वाचिक महिमा मंडन कर एक और तो उन्हें देवी के रूप में पूजनीया घोषित किया तो दूसरी और परम्पराओं एवं रुढियों की श्रृंखलाओं में जकड उन्हें घर की ड्योढ़ी की बंदिनी बना दिया| स्त्री अस्मिता को पहचानने से इनकार करते हुए उनके सम्पूर्ण जीवन को विवाह , गृह कार्यों , पुरुष उपभोग्या , संतानोत्पत्ति एवं संतान का लालन – पालन एवं संपूर्णतः एक दासी के रूप में परिभाषित किया गया |

 यद्यपि अतीत के पन्नों में वेदकालीन स्त्री मनीषियों के रूप में अरुंधती , लोपमुद्रा , भारती की उस विद्वता के प्रमाण भी मिलते हैं जिससे तत्कालीन पुरुष मनीषियों में हीनता का भाव अपने चरम पर रहा , भक्तिकाल मीराबाई , अणडाल एवं स्वातंत्र्य संग्राम में शौर्य की पर्याय बनी रानी लक्ष्मी बाई आदि ऐसे अनगिनत नाम हैं जो नारी को अशक्त , अबला आदि – आदि विशेषणों को सिरे से खारिज करते हैं |

 देश स्वतंत्र हुआ , संविधान बना , मौलिक अधिकार भी हमें दिए गए किन्तु उस ‘ हमें ‘ में हम स्त्रियों को सम्मिलित नहीं किया गया | स्वंत्र राष्ट्र की नागरिक होते हुए भी स्वंतंत्रता की ताज़ा बयार से स्त्रियाँ वंचित ही रहीं और घर की चारदीवारी के भीतर अभी भी उनकी स्थिति कोल्हू के बैल के सामान ही रही |

समवेत रूप से इसका दुष्प्रभाव राष्ट्रीय स्तर पर पड़ा जिसका सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा शिक्षा व्यवस्था को | कहा गया है कि “ यदि एक पुरुष को शिक्षित बनाया जाये तो शिक्षा का लाभ मात्र उस पुरुष विशेष को ही मिलता है किन्तु एक स्त्री को शिक्षित बनाने पर पूरा परिवार शिक्षित होता है | “एक अशिक्षिता माता के द्वारा अपनी संतान को शिक्षा के प्रति जागृत करना एवं प्रेरित करना दुरूह कल्पना के अतिरिक्त और कुछ नहीं |

 अथर्ववेद की निम्न ऋषियोक्ति के साथ संपूर्ण विश्व में नारी महिमा का उद्घोष हो चुका था , “ माता भूमिः पुत्रो अहम् पृथिव्याः “ किन्तु इसके पश्चात् भी विडम्बना स्वरुप हीनता और स्त्रियाँ एक दूसरे का पर्याय बनी रहीं | वर्तमान समय भी साक्षी है स्त्रियों के उस अनवरत संघर्ष की संलग्नता का जिसके साथ वे आज भी अपने उस मान  – सम्मान को प्राप्त करने हेतु प्रयासरत हैं |

महिला सशक्तिकरण का प्रयोग एवं प्रयास लगभग पिछले एक दशक से होता आ रहा है किन्तु एक आन्दोलन के रूप में तथा विमर्श के रूप में यह पिछले छः – सात वर्षों से विशेष चर्चित रहा है | भारतीय सन्दर्भ में इस शब्द को यदि हम देखें तो यह स्पष्ट है कि स्वतंत्रता प्राप्ति उपरान्त तिन दशकों तक महिलाओं को सशक्त करने के प्रयास को ,’ महिला कल्याण ‘ के नाम से जाना जाता रहा , कालांतर में आठवें दशक में  ‘ ‘महिला विकास ‘ की बात कही जाने लगी और नौवे दशक में यह प्रयास ‘ महिला समानता ‘ के नाम से जाना जाने लगा | नौवे दशक के अंतिम चरण में एवं इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करते ही नारी सशक्तिकरण का स्वर तेज हो गया | सशक्तिकरण अपने आप में व्यापक अर्थ को समाहित करता हुआ स्वयं को परिभाषित करता है , जिसके साथ अधिकारों एवं शक्तियों का स्वाभाविकतः समावेश है | वस्तुतः सशक्तिकरण एक मानसिक अवस्था है जिसका आधार आतंरिक क्षमता , शैक्षिक , सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक परिस्थितियां होती हैं जिसे पुष्ट करने के लिए समाज में आवश्यक वैधानिक आधार , सुरक्षात्मक प्रावधानों के सुचारू क्रियान्वयन के लिए सक्षम प्रशासनिक व्यवस्था की अपेक्षा होती है |इन अपेक्षाओं की पूर्ति न होने के कारण ही हमारे देश में नारी सशक्तिकरण मात्र एक दिशाहीन आन्दोलन और महज जुमलेबाजी का शिकार होकर रह गया है |

एक और भी दुर्भाग्य नारी सशक्तिकरण के साथ जुडा है और वह है इसका शहरों तक ही सीमित रह जाना | एकओर जहाँ शहरों और महानगरों की स्त्रियाँ शिक्षित , सड़ी – गली परम्पराओं से मुक्त , आर्थिक स्वतंत्रता से लैस , नई सोच से भरी घर की चाहरदीवारी से बाहर खुली हवा में साँस ले रही हैं , घर – बाहर के दोहरे दायित्वों में अद्भुत सामंजस्य दिखाते हुए अपने उन नैसर्गिक गुणों का साक्षात्कार स्वयं भी करते हुए उन्हें अबला समझने वाले वर्चस्ववादियों के सम्मुख चुनौती बनकर खडी हैं , दूसरी ओर , गांवों में रहनेवाली स्त्रियाँ हैं , जिन्हें न तो अपने अधिकारों की जानकारी है न ही उन अधिकारों का उपभोग करने की इक्छाशक्ति और लालसा | अत्याचारों और सामजिक वर्जनाओं तथा मानसिक उत्पीडन की ऐसी अभ्यस्त हो चुकी हैं कि उन वर्जनाओं को ही वे अपनी नियति मान चुकी हैं |

 यह एक गंभीर चिंतनीय विषय है कि सामजिक सशक्तिकरण का जरिया क्या हो सकता है ? उत्तर जितना ही सरल प्रतीत होता है उसे पाना उतना ही कठिन ! शिक्षा ही एकमात्र वह शक्तिशाली उपकरण है जो सामजिक विकास की गति को उर्ध्वगामी दिशा और तीव्रता प्रदान कर सकती है | समानता एवं स्वतंत्रता के अधिकारों के साथ – साथ अपने वैधानिक अधिकारों का उपयोग एवं उपभग एक शिक्षित व्यक्ति ही कर सकता है | शिक्षा ही उसे आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से सक्षम और सशक्त बनती है | इतिहास साक्षी है पितृसत्तात्मक षड्यंत्र का जिसके तहत स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न हो सकें ,       उन अधिकारों की माँग न कर सकें , उन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया | अन्ततः उसी षड्यंत के वशीभूत आज भी अधिसंख्य स्त्रियाँ दोयम दर्जे की नागरिकता को ही अपना यथेष्ट  मानती रहीं | आज भी पुरुष साक्षरता की तुलना में स्त्री साक्षरता का अनुपात बहुत ही कम है |यद्यपि इधर कुछ वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों , स्वाभाविक सामजिक विकास ने स्त्रियों को शिक्षा के महत्व के प्रति जागरूक बनाने में अहम् भूमिका निभाई है , किन्तु अभी भी शिक्षा को प्राथमिकता सूची के पहले पायदान पर रखने के प्रति कोई उत्साह नहीं दीखता  इसे पूर्वाग्रह ग्रस्त मानसिकता के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है ? जबतक समाज स्त्रियों के प्रति दोहरे मापदंड से स्वयं को मुक्त नहीं करता , नारी सशक्तिकरण की बात मंचीय बहस का मुद्दा बनकर ही रह जाएगी |

 यह निर्विवाद सत्य है कि कोई भी राष्ट्र विकास के पथ पर तभी अग्रसर हो सकता है जब उसकी आधी आबादी को आर्थिक , सामजिक , राजनैतिक , शैक्षणिक , व धार्मिक – हर क्षेत्र में सशक्त किया जाये | अरस्तू ने सदियों पूर्व इस तथ्य को मान्यता देते हुए कहा था – ,’ महिलाओं का सशक्त होना निरंतर विकास की बुनियाद है , समर्थ और शिक्षित महिलाएं ही अपने जीवन के सभी पहलुओं पर पूरा नियंत्रण राख सकती हैं एवं जबतक उन्हें जीवन और आजीविका के भौतिक आधारों की सशक्तता प्राप्त नहीं हो जाती तबतक महिला सशक्तिकरण की कल्पना व्यर्थ है | ‘

 निष्कर्षतः स्त्री सशक्तिकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने में शिक्षा की अहम् भूमिका है | शिक्षा मानवीय आचार , विचार , व्यव्हार में यथोचित एवं अपेक्षित परिवर्तन लाती है | शिक्षा स्त्रियों के सर्वांगीण विकास , समाज के चतुर्दिक विकास और सभ्यता के बहुमुखी विकास का माध्यम है | पूर्वाग्रह मुक्त मानसिकता को त्याग जिस क्षण दोनों आधी आबादियाँ एक दूसरे की पूरक बनने का संकल्प लेते हुए जीवन के मार्ग को समतल बनाने का संकल्प लेंगी , महिला सशक्तिकरण का लक्ष्य उसी क्षण पूरा होगा |

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