गणतंत्र दिवस पर महान सेनानी गांधी,नेहरू, सुभाष और शास्त्री जी के साथ असंख्य बलिदानियों को याद करने का अवसर

0

गणतंत्र दिवस पर महान सेनानी गांधी,नेहरू, सुभाष और शास्त्री जी के साथ असंख्य बलिदानियों को याद करने का अवसर

संजीव ठाकुर

26 जनवरी गणतंत्र दिवस हमे हमेशा याद दिलाता रहेगा कि यह दिवस स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए महान महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू लाल बहादुर शास्त्री, सरदार वल्लभभाई पटेल एवं अन्य असंख्य वीर सेनानियों को जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के अग्निकुंड में अपनी आहुति दी थी को याद करने का और उनको कृतज्ञ राष्ट्र की श्रद्धांजलि देने, उन्हें नमन करने का का अवसर है।23 जनवरी को सुभाष जयंती के अवसर पर उन्हें भी नमन, उनके संदर्भ में कुछ लिखना इसीलिए भी संदर्भित एवं समीचीन है कि सुभाष बाबू ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए और देश के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया था, एवं उनकी जन्म तिथि 23 जनवरी को ही है।सुभाष चंद्र बोस एक साथ महान सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति का अद्भुत खिलाड़ी, अंतरराष्ट्रीय ख्याति का महान पुरुष जो अंतरराष्ट्रीय स्तर के नेताओं के समकक्ष अधिकार के साथ बैठने तथा कूटनीति चर्चा का अधिकार रखते थे।ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने के लिए भारत के बच्चे बच्चे को स्वतंत्रता की बलिवेदी पर हंस-हंस कर अपनी जान न्योछावर करने को तैयार करने के लिए “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा”का नारा देने वाले जिस महान योद्धा ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के खून में शक्ति का संचार किया एवं संपूर्ण देश को एक सफल नेतृत्व दिया ऐसे महान सेनानी सुभाष चंद्र बोस को कृतज्ञ भारत राष्ट्र की श्रद्धांजलि एवं नमन।सुभाष चंद्र बोस एक ऐसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और जुझारू योद्धा थे,जिनके कदम लक्ष्य कभी पीछे नहीं हटे, और उन्होंने जो सपना देखा था उसे प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास किया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा प्रांत के कटक शहर में हुआ था ।उनके पिता श्री जानकी दास बोस एक प्रसिद्ध सरकारी वकील थे। उनके पूर्वज पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले के केदलिया गांव के निवासी थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा कटक में हुई आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रवेश किया था। उनके पिता की इच्छा के अनुसार उन्होंने आई,सी,एस की परीक्षा मेरिट में उत्तीर्ण की थी। यह अलग बात है कि उन्होंने स्वतंत्र संग्राम में कूदने के कारण उस सेवा मैं अपनी उपस्थिति नहीं दी। अंग्रेजो के खिलाफ अपने संघर्ष की शुरुआत करते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने देशबंधु चितरंजन दास के सहयोगी बनकर की। प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत आगमन पर उन्होंने जमकर विरोध किया एवं उनका बहिष्कार किया और फलस्वरूप उन्हें 6 माह की जेल दे दी गई। 1924 में जब देशबंधु कोलकाता के मेयर बने तब सुभाष चंद्र को उनका चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर बनाया गया। उनके स्वतंत्रता संग्राम के प्रति लगाव तथा उनकी लगातार अंग्रेज सरकार के विरोध में गतिविधि के कारण गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, किंतु उन्हें अधिक समय तक जेल में नहीं रखा जा सका ।1927 में फिर रिहा कर दिए गए।इस समय तक वे देश के प्रखर नेता बन चुके थे ।उनकी ख्याति भारत की सीमा के पार जर्मनी, जापान अमेरिका, सोवियत रूस जैसे देशों तक पहुंच चुकी थी। 26 जनवरी 1930 को कोलकाता का मेयर रहते हुए उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम का अलख जगा कर अंग्रेजों को भयभीत कर दिया था। एक विशाल रैली निकालकर अंग्रेजों का विरोध किया जिससे अंग्रेज शासन ने भयभीत होकर उन्हें फिर जेल में डाल दिया गया था इस बार उन्हें यातनाएं भी दी गई थी। इसके बाद सरकार ने सोची समझी साजिश के तहत उन्हें सीधा यूरोप के स्विजरलैंड भेज दिया गया था। नेताजी को रिहा नहीं किया गया था बल्कि निर्वासन दिया गया था, और यह बात सिद्ध हो गई जब अपने पिता की मृत्यु पर स्वदेश लौटते ही उन्हें गिरफ्तार कर उनके घर में ही नजरबंद कर दिया गया। वर्ष 1938 में वे कांग्रेस के हरिपुर अधिवेशन में गांधी जी द्वारा नामजद उम्मीदवार पट्टाभी सीतारामय्या के विरुद्ध अध्यक्ष पद का चुनाव जीतकर कामयाब हो गए थे। गांधी जी ने इस पराजय को अपनी पराजय माना था। सुभाष चंद्र बोस गांधी जी का बहुत सम्मान करते थे अतः दक्षिणपंथी कांग्रेसियों के असहयोग को देखते हुए उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और फॉरवर्ड ब्लॉक नामक एक नई पार्टी की स्थापना की थी। 1941 में उन्हें फिर गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया गया था ,किंतु वे भेष बदलकर भागने में सफल हो गए। भारत से भागकर वे सीधे रंगून पहुंचे। उस समय जर्मनी के हिटलर तानाशाह ने उन्हें यथा योग्य सम्मान दिया एवं उनकी योजना को समर्थन तथा सहयोग भी दिया था। 1943 में सुभाष चंद्र बोस जापान चले गए वहां से सिंगापुर पहुंचे। जहां सेनानी रासबिहारी बोस ने उन्हें आजाद हिंद फौज का सेनापति नियुक्त किया। 1940 में सुभाष चंद्र बोस में सिंगापुर में ही आजाद भारत की स्थाई सरकार की घोषणा कर दी थी। उन्हें जापान, इटली, चीन, जर्मनी, फिलीपींस ,कोरिया, आयारलैंड देशों की सरकारों का समर्थन एवं मान्यता प्राप्त हो गई थी। बाद में उन्होंने रंगून को अपनी अस्थाई राजधानी बनाई थी। वर्ष 1945 को अंग्रेजी सैनिकों ने रंगून पर पुनः कब्जा कर लिया, आजाद हिंद फौज को इस युद्ध में भले ही हार का सामना करना पड़ा हो पर ब्रिटिश सरकार के सैनिकों के दांत खट्टे सुभाष चंद्र बोस के सैनिकों ने कर दिया था। वहां तैनात झांसी रेजीमेंट की वीरांगनाओं के अदम्य साहस शौर्य वीरता को कभी भुलाया नहीं जा सकता। द्वितीय युद्ध में जापान की हार के बाद सुभाष चंद्र बोस को नया रास्ता ढूंढना बहुत आवश्यक हो गया था।उन्होंने रूस से सहायता मांगने का निश्चय किया। 18 अगस्त 1945 को हवाई जहाज से मांचूरिया की ओर जा रहे थे, इस सफर के दौरान वह लापता हो गए। 23 अगस्त 1945 को वायुयान दुर्घटना में उनकी मृत्यु के समाचार पर किसी को विश्वास नहीं हुआ।देश के प्रति दुर्लभ प्रेम की भावना का परिणाम था कि बीसवीं सदी के अंत तक भारतवासी यही मानते रहे कि उनके प्रिय नेता जी की मृत्यु नहीं हुई है और आवश्यकता पड़ने पर पुनः देश की बागडोर संभालने कभी भी आ सकते हैं। देश के स्वतंत्रता संग्राम में उनकी महत्वपूर्ण एवं अहम भूमिकाओं को दृष्टिगत रखते हुए उन्हें 1992 में मरणोपरांत देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। नेताजी आज हमारे बीच शारीरिक रूप से उपस्थित नहीं है पर देशभक्ति का उनका अमर संदेश आज भी हमे देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा देता है।नेताजी सुभाष चंद्र बोस को हम सब की तरफ से पुनः नमन प्रणाम।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here