-डॉ ध्रुव कुमार

बिहार के शाहाबाद जनपद के वनवास नामक गांव में 9 अगस्त 1893 को एक सामान्य किसान परिवार में जन्में शिवपूजन सहाय को 1914 में महज 20 वर्ष की अवस्था में आरा के टाउन स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई थी। यह वो दौर था, जब भारतीय जनमानस अंग्रेजों की हुकूमत से कराह रहा था। युवा शिवपूजन के दिल में भी देशभक्ति हिलोरें मार रही थी और यही कारण है कि 1920 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के शुरू होते ही वे राष्ट्रीय स्कूल के अध्यापक पद से त्यागपत्र देकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। वे बचपन से ही बहुत कुशाग्र थे। उन्होंने आरा के कायस्थ जुबली एकेडमी से 1912 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। छात्र अवस्था में ही उनका झुकाव लेखन की ओर हो गया था। उनकी रचनाएं उन दिनों शिक्षा, लक्ष्मी, मनोरंजन और पाटलिपुत्र आदि बिहार की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थी। वे वस्तुतः पत्रकार थे। स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने के पश्चात उनके पत्रकारीय जीवन की शुरुआत हुई और 1921 में आगरा से प्रकाशित होने वाले
मासिक पत्र ” मारवाड़ी सुधार ” का संपादन किया। दो साल के उपरांत वे अपने साहित्यिक गुरु ईश्वरी प्रसाद शर्मा की प्रेरणा से सन् 1923 में कोलकाता पहुंचे और वहां मतवाला- मंडल में सम्मिलित हो गए। इस मंडल में उन दिनों मिर्जापुर के महादेव प्रसाद सेठ, नवजादिक लाल श्रीवास्तव, पांडेय बेचन शर्मा ‘ उग्र ‘ और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला शामिल थे। मतवाला से इनकी संपादन प्रतिभा निखरी। कोलकाता प्रवास में उन्होंने मतवाला के अतिरिक्त मौजी, आदर्श, गोलमाल, उपन्यास-तरंग और समन्वय आदि कई पत्रों के संपादन में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। कलकत्ता में इनके नाम का यश इतना फैला कि उन्हें लखनऊ से ” माधुरी ” में संपादन कार्य में सहयोग के लिए बुलावा आ गया और वे 1925 में लखनऊ पहुंचे। लेकिन अगले साल फिर वापस कोलकाता पहुंचकर ‘ मतवाला – मंडल ‘ में शामिल हो गए। लखनऊ में ही उनकी मुलाकात प्रेमचंद से हुई। प्रेमचंद भी माधुरी के संपादन में सहयोग कर रहे थे। प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय की संपादन- कला से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपने अप्रकाशित उपन्यास ‘ रंगभूमि ‘ के मुद्रण, संपादन और प्रूफ संशोधन का कार्य सौंप दिया। वस्तुत: रंगभूमि उपन्यास की छपाई का कार्य शिवपूजन सहाय के नेतृत्व में ही हुआ था। मतवाला के बाद शिवपूजन सहाय भागलपुर के समीप सुल्तानगंज से प्रकाशित होने वाली ” गंगा ” नामक साहित्यिक पत्रिका के संपादन का कार्यभार संभाला। इसके उपरांत पुस्तक भंडार के संचालक आचार्य रामलोचन शरण बिहारी के निमंत्रण पर उनके प्रकाशनों के संपादन और वितरण में सहयोग सहयोगी के रुप में दरभंगा के लहरियासराय चले गये, जहां उन्होंने कई वर्षों तक कार्य किया। इसी बीच पुस्तक भंडार के प्रकाशन के कार्यों के संबंध में उनका कई बार काशी भी आना-जाना हुआ और इस दौरान बनारस के कई सुप्रसिद्ध साहित्यकारों से उनका संपर्क हुआ। इस संपर्क का परिणाम यह हुआ कि उन्हें काशी से प्रकाशित मासिक पत्र जागरण के संपादन – प्रकाशन का दायित्व मिला। काशी में उन दिनों प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, विनोद शंकर व्यास आदि अनेक साहित्यकार सक्रिय थे। जिनके साथ शिवपूजन सहाय का संपर्क और सहयोग बढ़ता गया। प्रेमचंद से तो वे लखनऊ से ही परिचित थे। काशी से वे 1933 में ‘ जागरण ‘ का दायित्व विनोद शंकर व्यास को सौंप कर वापस दरभंगा ( लहरियासराय ) लौट गए। इस बार लहरियासराय में उन्होंने पुस्तक भंडार की ओर से प्रकाशित होने वाले बाल पत्रिका ” बालक ” का संपादन कई वर्षों तक अत्यंत कुशलतापूर्वक किया।
उनके संपादन में यह बाल पत्रिका राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई। 1939 में उन्होंने पुस्तक भंडार से अवकाश ग्रहण कर छपरा के राजेंद्र कॉलेज में हिंदी के प्राध्यापक हो गए। लेकिन इनके अंदर का संपादक और पत्रकार शिक्षण कार्य से संतुष्ट नहीं हुआ और 1946 में एक वर्ष का अवकाश लेकर पटना चले आए और पुस्तक भंडार द्वारा प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ” हिमालय ” का संपादन किया। हिमालय के संपादन के दौरान उनके द्वारा लिखी गई टिप्पणियों पर साहित्य जगत में खूब चर्चा होती। उनकी लेखनी से साहित्य जगत में हलचल मची रहती। राजेंद्र कॉलेज छपरा से अवकाश ग्रहण करने के बाद 1950 में शिवपूजन सहाय जब पटना लौटे तो बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें अपनी शोध प्रधान त्रैमासिक पत्रिका ” साहित्य ” का दायित्व सौंपा । ” साहित्य ” के संस्थापक- संपादक के रूप से शुरू होकर अपने जीवन के अंतिम क्षण तक उन्होंने ‘ इसका संपादन किया। इस पत्रिका ने शोध और शिक्षा के क्षेत्र में जो नए मानदंड प्रस्तुत किए वह हिंदी जगत में आज भी अतुल्यनीय है।
उनकी संपादन कला से सम्मोहित उनके साथ लंबे समय तक कार्य कर चुके आचार्य श्रीरंजन सूरिदेव उनके व्यक्तित्व का आकलन इन शब्दों में किया था – ” उन्होंने एक पत्रकार – संपादक के रूप में जिस उत्साह से हिंदी सेवा का व्रत लिया था, उसी उत्साह और दृढ़ता से उसे निभाया भी। हिंदी प्रेम उनकी धमनियों में लहू की तरह प्रवाहित होता रहता था। वे आचार्य महावीर प्रसाद जैसे संपादकाचार्य की परंपरा में अग्रणी कवि के रूप में हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में आए और द्विवेदी जी के आदर्शों के अनुरूप अपने को ढाल कर उन्होंने पूरी निष्ठा और दायित्व चेतना के साथ समर्पित और स्तरीय संपादन – कार्य का एक नया प्रतिमान खड़ा कर दिया। वे एक संवेदनशील रचनाकार, समीक्षक, विद्वान संपादक और एक मार्मिक कलमकार के रूप में प्रतिष्ठित होते गए। उनकी संपादन कला और क्षमता अद्वितीय थी। “

शिव पूजन सहाय का जीवन एक ऐसे कर्मयोगी का जीवन था, जिन्होंने अनवरत कर्मरत रहने का अपना जीवन – लक्ष्य निर्धारित कर लिया हो। अनेक पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के जरिए उन्होंने भाषा परिष्कार, वर्तनी और शैली के जो मानदंड प्रस्तुत किए, वे आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितने उन दिनों थे।
शिवपूजन सहाय हिंदी के उन गिने -चुने साहित्यकार-पत्रकारों में अग्रणी स्थान रखते हैं, जिनके कारण हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को एक नई ऊंचाई मिली। लगभग 42 वर्षों के अपने साहित्यिक जीवन में उन्होंने अनेक पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया । इस दौरान उन्होंने भाषा परिवर्तन, भाषा परिष्कार, वर्तनी और शैली के अनेक मानदंड स्थापित किए। साहित्यिक पत्रकरिता और रचनात्मक लेखन के जरिए पूरी दुनिया में हिंदी को सम्मान दिलाने वाले शिवपूजन सहाय एक सच्चे राष्ट्रभक्त थे।
उनकी साहित्यिक सेवाओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए 1960 में भारत सरकार ने उन्हें ” पद्मभूषण ” की उपाधि प्रदान की। उन्हें 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय ने डी.लिट. की उपाधि से विभूषित किया, तो 1961 में पटना नगर निगम ने ” नागरिक सम्मान ” प्रदान किया।1 जनवरी 1963 को 70 वर्ष की आयु में उन्होंने पटना में आखिरी सांस ली।