डॉ ध्रुव कुमार
स्वतंत्र पत्रकार. 128 वीं जयंती ( 9 अगस्त ) पर विशेष
” देहाती दुनिया ” के माध्यम से हिंदी साहित्य को प्रथम आंचलिक उपन्यास देने वाले आचार्य शिवपूजन सहाय ने उपन्यासकार, कहानीकार, साहित्यिक पत्रकारिता, संस्मरण लेखन, समीक्षा – आलोचना व संपादन कला से जिस अतुल साहित्य संपदा को समृद्ध किया, वह हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनकी बहुविध रचनाओं की सृजनशीलता से हिंदी साहित्य में श्रीवृद्धि में अतुल्यनीय योगदान है। वे हिंदी के गिने-चुने शीर्ष साहित्यकारों में शामिल हैं, जिन्होंने अपना सब कुछ न्योछावर कर हिंदी साहित्य की समृद्धि के लिए दिन – रात एक कर दिया।
साहित्य सृजन के लिए वे पटना, कलकत्ता, बनारस लखनऊ, भागलपुर, दरभंगा, छपरा आदि शहर- शहर घूमते रहे। उन्होंने अपने कर्ममय साहित्यिक जीवन में बहुत पापड़ बेले, लेकिन साहित्य सेवा के जिस अनुष्ठान का संकल्प उन्होंने लिया, उसमें जीवन के अंतिम दिवस तक लगे रहे। उनका जीवन एक ऐसे कर्मयोगी का जीवन था, जिन्होंने अनवरत कर्मरत रहने का अपना जीवन – लक्ष्य निर्धारित कर लिया हो। अनेक पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के जरिए उन्होंने भाषा परिष्कार, वर्तनी और शैली के जो मानदंड प्रस्तुत किए, वे आज भी उतने ही महत्वपूर्ण है, जितने कि उन दिनों थे।
उनकी साहित्यिक सेवाओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए 1960 में भारत सरकार ने उन्हें ” पद्मभूषण ” की उपाधि प्रदान की। उन्हें 1962 में भागलपुर विश्वविद्यालय ने डी.लिट. की उपाधि से विभूषित किया, तो 1961 में पटना नगर निगम ने ” नागरिक सम्मान ” आयोजित कर उनके साहित्य – कर्म का अभिनंदन करते हुए अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की।
उनका जन्म बिहार के शाहाबाद जनपद के वनवास नामक गांव में 9 अगस्त 1893 को एक सामान्य किसान परिवार में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के विद्यालय में हुई और उसके उपरांत 1903 में आरा के कायस्थ जुबली एकेडमी नामक विद्यालय में उनका दाखिला कराया गया। वहां से उन्होंने 1912 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। माना जाता है कि छात्र अवस्था में ही उनका झुकाव लेखन की ओर हो गया था और वे अपनी रचनाएं उन दिनों शिक्षा, लक्ष्मी, मनोरंजन और पाटलिपुत्र आदि बिहार की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थी। मैट्रिक की परीक्षा करने के पश्चात 1914 में उन्होंने आरा के
टाउन स्कूल में अध्यापन का कार्य प्रारंभ किया लेकिन 1920 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के शुरू होते ही उन्होंने राष्ट्रीय स्कूल के अध्यापक पद से त्यागपत्र देकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।
आचार्य शिवपूजन सहाय हिंदी के उन गिने चुने पत्रकारों में अग्रणी स्थान रखते हैं जिनके कारण हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को एक नई ऊंचाई मिली। लगभग 42 वर्षों के अपने साहित्यिक जीवन में उन्होंने अनेक पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और इस दौरान उन्होंने भाषा परिवर्तन, भाषा परिष्कार, वर्तनी और शैली के अनेक मानदंड स्थापित किए।
साहित्यिक पत्रकरिता और रचनात्मक लेखन की कला में उनका योगदान हिंदी साहित्य के लिए भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। एक पत्रकार के रूप में अपने साहित्यिक जीवन का प्रारंभ करके उन्होंने साहित्य की प्रायः सभी विधाओं को अपनी सृजनशीलता से समृद्ध किया।
आचार्य शिवपूजन सहाय वस्तुतः पत्रकार ही थे। उनके पत्रकारीय जीवन की शुरुआत 1921 में आगरा से प्रकाशित होने वाले ” मारवाड़ी सुधार ” मासिक पत्र के संपादन के साथ शुरू हुआ। दो साल के उपरांत उन्होंने अपने साहित्यिक गुरु ईश्वरी प्रसाद शर्मा की प्रेरणा से सन् 1923 में कोलकाता पहुंचे और वहां मतवाला- मंडल में सम्मिलित हो गए। इस मंडल में उन दिनों मिर्जापुर के महादेव प्रसाद सेठ, नवजादिक लाल श्रीवास्तव, पांडेय बेचन शर्मा ‘ उग्र ‘ और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला शामिल थे। मतवाला से इनके संपादन प्रतिभा का अच्छा-खासा विकास हुआ। कोलकाता प्रवास में उन्होंने मतवाला के अतिरिक्त मौजी, आदर्श, गोलमाल, उपन्यास-तरंग और समन्वय आदि कई पत्रों के संपादन में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। कलकत्ता में इनके नाम का यश इतना पहला फैला कि उन्हें लखनऊ से ” माधुरी ” में संपादन कार्य में सहयोग के लिए बुलावा आ गया और वे 1925 में लखनऊ पहुंचे। लेकिन अगले साल फिर वापस कोलकाता पहुंचकर ‘ मतवाला – मंडल ‘ शामिल हो गए। लखनऊ में उनकी मुलाकात मुंशी प्रेमचंद से हुई। प्रेमचंद भी माधुरी के संपादन में सहयोग कर रहे थे। मुंशी प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय की संपादन कला से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपने अप्रकाशित उपन्यास ‘ रंगभूमि ‘ के मुद्रण, संपादन और प्रूफ संशोधन का कार्य सौंप दिया। वस्तुत: रंगभूमि उपन्यास की छपाई का कार्य शिवपूजन सहाय के नेतृत्व में ही हुआ। मतवाला के बाद शिवपूजन सहाय भागलपुर के समीप सुल्तानगंज से प्रकाशित होने वाली ” गंगा ” नामक साहित्यिक पत्रिका के संपादन का कार्यभार संभाला। इसके उपरांत पुस्तक भंडार के संचालक आचार्य रामलोचन शरण बिहारी के निमंत्रण पर उनके प्रकाशनों के संपादन और वितरण में सहयोग सहयोगी के रुप में दरभंगा के लहरिया सराय चले गये। यहां कई वर्षों तक उन्होंने कार्य किया। इसी बीच में पुस्तक भंडार के प्रकाशन के कार्यों के संबंध में उनका कई बार काशी भी आना-जाना हुआ और इस दौरान बनारस के कई सुप्रसिद्ध साहित्यकारों से उनका संपर्क हुआ। इस संपर्क का परिणाम यह हुआ कि उन्हें काशी से प्रकाशित मासिक पत्र जागरण के संपादन – प्रकाशन का दायित्व मिला। काशी में उन दिनों प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, विनोद शंकर व्यास आदि अनेक साहित्यकार सक्रिय थे। जिनके साथ शिवपूजन सहाय का संपर्क और सहयोग बढ़ता गया। प्रेमचंद से तो वे लखनऊ से ही परिचित थे। काशी से वे 1933 में ‘ जागरण ‘ का दायित्व विनोद शंकर व्यास को सौंप कर वापस दरभंगा ( लहरिया सराय ) लौट गए। इस बार लहरियासराय में उन्होंने पुस्तक भंडार की ओर से प्रकाशित होने वाले बाल पत्रिका ” बालक ” का संपादन कई वर्षों तक अत्यंत कुशलतापूर्वक किया।
उनके संपादन में यह बाल पत्रिका राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई। 1939 में उन्होंने पुस्तक भंडार से अवकाश ग्रहण कर छपरा के राजेंद्र कॉलेज में हिंदी के प्राध्यापक हो गए। लेकिन इनके अंदर का संपादक और पत्रकार शिक्षण कार्य से संतुष्ट नहीं हुआ और 1946 में एक वर्ष का अवकाश लेकर पटना चले आए और पुस्तक भंडार द्वारा प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ” हिमालय ” का संपादन किया। हिमालय के संपादन के दौरान उनके द्वारा लिखी गई टिप्पणियों पर साहित्य जगत में खूब चर्चा होती और हलचल मची रहती। राजेंद्र कॉलेज छपरा से अवकाश ग्रहण करने के बाद 1950 में शिवपूजन सहाय जब पटना लौटे तो उन्हें बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन ने अपनी शोध प्रधान त्रैमासिक पत्रिका ” साहित्य ” का दायित्व सौंपा । इसके संस्थापक- संपादक के रूप से शुरू होकर अपने जीवन के अंतिम क्षण तक उन्होंने ‘ साहित्य ‘ का संपादन किया। इस पत्रिका ने शोध और शिक्षा के क्षेत्र में जो नए मानदंड प्रस्तुत किए वह हिंदी जगत में आज भी अतुल्यनीय है।
‘ देहाती दुनिया ‘ उपन्यास के अतिरिक्त उन्होंने ग्राम सुधार, बिहार का विहार, विभूति, अर्जुन, भीष्म, दो घड़ी, मां के सपूत, अन्नपूर्णा के मंदिर में, महिला महत्व, बालोद्यान और ‘ आदर्श परिचय ‘ कृतियों की भी रचना की। उन्होंने अपने जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव और प्रस्ताव के बावजूद जितना प्रचुर साहित्य का सृजन किया उसे देख- सुन कर आश्चर्यचकित हो जाना पड़ता है। सौभाग्य है कि उनकी तमाम कृतियों और रचनाओं को बिहार हिंदी राष्ट्रभाषा परिषद ने ” शिवपूजन रचनावली ” नाम से चार खंडों में प्रकाशित किया है। उनके सर्जनात्मक साहित्य का एक रूप उन ग्रंथों के संपादक के रूप में भी मिलता है जिसका संपादन उन्होंने समय-समय पर किया। इन महत्वपूर्ण ग्रंथों में द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ, राजराजेश्वरी ग्रंथावली, राजा कमलानंद सिंह ग्रंथावली, राजेंद्र अभिनंदन ग्रंथ, आत्मकथा, रजत जयंती स्मारक ग्रंथ, बिहार की महिलाएं और सेवा धर्म के नाम विशेष महत्वपूर्ण है। इनमें द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को सन 1933 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से समर्पित किया गया था और रजत जयंती स्मारक ग्रंथ का प्रकाशन पुस्तक भंडार, लहरियासराय की रजत जयंती के अवसर पर सन 1942 में किया गया था। इसे पुस्तक भंडार के संचालक आचार्य रामलोचन शरण को उनके जीवन की ” स्वर्ण जयंती ” पर समर्पित किया गया था। इसी प्रकार राजेंद्र अभिनंदन, भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए किया गया था। वहीं उनकी आत्म-कथा को पुस्तकाकार प्रकाशित होने से पूर्व उसके संपादित अंश हिमालय में भी छपे। वास्तव में आचार्य शिवपूजन सहाय हिंदी के दधीचि पुरुष थे।
उनका निधन 21 जनवरी 1963 को पटना में हुआ था।