राज प्रिया रानी
आरंभ पुरुष का हर कदम स्त्री थी
उषा से निशा तक स्त्री ही करम थी
पुरुष की दुनिया भी प्रभा से थी जागती
निशा की नींद भी उसकी सपना निहारती
शांति की अभिलाषा पुरुष को तलाश थी
स्वरागीनी की छांव पर विश्वास अथाह था।
आराध्य काली से पुरुष वर्चस्व आबाद था
पूजा की तिलक पर जीत का आभास था
ध्येय पुरुष का लक्ष्मी अहम थी
गरिमा के नशे में निधि पहल थी
कुसुम की सुगन्ध से पुरुष भी नूर था
पंखुरी को मसलने में पुरुष निपुर्ण था
तृष्णा की तृप्ति में पुरुष व्याकुल था
तृषा के हवन में उसे आंचल मंजूर था
जीवन परिधि स्त्री पर घूमता पुरुष का
फिर क्यों….
स्त्री से सर्वोत्तम कहलाना उसका उसूल था
स्त्री बिन पुरुष का आवास बेगाना
स्त्री माहात्म्य से पुरुष क्यों अंजाना
बुलंदियों में ढ़ाल थी पुरुष की अर्धांगिनी
विजया की मदहोशी में स्त्री कुलक्षिणी मैत्री,
संस्कृति पुरुष का कर्मक्षेत्र निखारा था ,
अद्भुत संरचना में स्त्री भूमिका प्रमुख था।
फिर भी स्त्री धर्म के नजरों में पुरुष महान था।
लेकिन पुरुष के महफ़िल में स्त्री स्वर बेजान था