मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

साहित्य

रात चाँद हथेली पर

 प्रियांशु त्रिपाठी

फिर एक रात

चाँद हथेली पर रखकर

माँगा है सिर्फ तुमको ही

उन टूटे तारों से

आज भी कल की ही तरह

देखो,

क्या मन्नत पूरी होती है

 या ये भी बनकर रह जायेगा

महज़ ख़्वाब का इक टुकड़ा

जो हर रोज़ थोड़ा टूटता है बिलकुल टूटे तारों की तरह

कहीं भटकते हुए सफ़र में थक कर मगर,

माँगा है

सिर्फ तुमको हीफिर रात,

चाँद हथेली पर रखकर

फिर रात, चाँद हथेली पर रखकर दिन भर की लाखों बातें की,

 जिनमे शामिल थे

, कुछ तारों से चमकते हुए लम्हें कुछ वक्त थे हल्के बादल जैसे

हम भी खो चुके थे उनमे ही

खो जाता है

कोई पागल जैसे हर लम्हें में

एक तुम्हारी याद थी

कुछ सच्ची,

कुछ बेबुनियाद थी

मगर सभी को प्यार से संजोया फ़ुरसत के कुछ वक्त लपक कर

जैसे माँगा है सिर्फ तुमको ही

फिर रात,

 चाँद हथेली पर रखकर

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