प्रॉफेसर शिवाकांत मिश्र
(पूर्व विभागाध्यक्ष
ए0एन0कॉलेज हिंदी विभाग)
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वन-प्रांतर में बढ़ता जाता
एक पथिक बेचारा।
मेघ गरजते काले काले
रहे दहाड़ शेर मतवाले।
लपक-लपक चल रहे व्याल से
छपक-छपक करते नद- नाले।
फैली विभीषिकाएं पथ के
कदम -कदम पर डेरा डाले
झंझा के झांकोर से करता
सन-सन है वन सारा।
वन-प्रान्तर में बढ़ता जाता
एक पथिक बेचारा।।
दौड़ रही हिरणों की टोली
सुन पडती चिड़ियों की बोली
दिशा प्रतीची ने है मल ली
अपने मुख पर रक्तिम रोली
आतंकित हो सारे पन्थी
बैठ गए पेड़ो के नीचे
लेकिन वह मस्ताना राही
लड़ता जाता क्रुद्ध काल से
और चढ़ता जाता है उसके
हिम्मत का मृदु पारा
वन-प्रान्तर में बढ़ता जाता
एक पथिक बेचारा।
वह मस्ती का गाकर गान
मन बहलाता है मन माना
उस बीहड़ पथ पर ही चलकर
है उसको निज मंजिल पाना
उसकी अंतर्ध्वनि से प्रतिपल
है मुखरित सारा नभमंडल
उसके स्वर में निर्भयता की
लहराती है लोल लहर
वह मस्ती का पुतला राही
है इस जग से न्यारा।
वन -प्रान्तर में बढ़ता जाता
एक पथिक बेचारा।।