देश में छोड़ने की गौरवशाली परंपरा (व्यंग)
रेखा शाह
बलिया (यूपी)
मध्यप्रदेश के जंगल में जब जबसे चीते छोड़े गए हैं देश की जनता, सोशल मीडिया अन्य फलाना- ढिमकाना मीडिया सभी इन चीतो के पुराण गाये जा रहे हैं, हर कोई अपने हिसाब से इस कालजई घटना पर बयान छोड़े जा रहा है परन्तु लोग भूल रहे है, हमारे देश में छोड़ने की बहुत पुरानी परंपरा है कोई नया अजूबा नहीं है.. पहले जन्मदिन पर कबूतर छोड़े जाते थे और अब चीते छोड़े जा रहे हैं बेवजह ही लोग बौरा रहे हैं यह कोई पहली दफा थोड़ी ना है कि कुछ छोड़ा जा रहा है इससे पहले बहुत कुछ छोड़ा जा चुका है।
लोग चीते छोड़कर इतरा रहे हैं ,अरे हम तो वह महान मानव हैं ..जो कभी पीओके छोड़ देते हैं ..कभी तिब्बत छोड़ देते हैं ..तो वक्क के लिए के लिए सरकारी जमीनों को छोड़ देते है .. और तो और नब्बे हजार पाकिस्तानी सैनिकों को छोड़कर जीती हुई बाजी छोड़ देते हैं .. कि जा पुत्र आबाद रह.. सारी दुनिया को बर्बाद करना फिर हमारे छाती पर मूंग दलना…नवरात्रों में भयंकर मांसाहारी भी मांसाहार छोड़ देते है, व्रत करने वाले नमक छोड़ देते है, महंगाई डायन के बढ़ जाने पर जनता द्वारा हरी सब्जी खाना छोड़ दिया जाता है, अचार से काम चला लिया जाता है, बेरोजगारों द्वारा नौकरी की उम्मीद छोड़ दिया है.. धन पशुओं को यह देश रहने लायक नहीं लगता तो उनके द्वारा देश ही छोड़ दिया जाता है।
छोड़ने और पकड़ने की बात कीजिएगा.. तो डॉक्टर फीस नहीं मिलने पर अपने पेशे से ईमानदारी और कर्तव्य छोड़ देता है, आम जनता खुशहाली की उम्मीद छोड़ देती है, पुलिस वाला घुस नही मिलने पर अपराधी छोड़ देता है, सुप्रीमकोर्ट आधी रात को अपराधी छोड़ देता है ,जिसको जहां जितना मिलता है वह उतना छोड़ देता है, बस छोड़ने के बाद रिटर्न में क्या मिलता है.. यह महत्वपूर्ण होता है।
और देश में राजनीतिज्ञो द्वारा तो अक्सर ही छोड़ा जाता है जिन्हें पकड़ना नामुमकिन ही नहीं असंभव होता है देश की बुद्धिजीवी से बुद्धिजीवी जनता भी भ्रमित हो जाती है.. साहब यह छोड़ने और पकड़ने का खेल बहुत लंबा है .. आभारी रहिए उन लोगों का जिन्होंने जान चली गई पर गरीब और गरीबी के मुद्दे नहीं छोड़े. भले गरीबों की गरीबी दूर करते-करते उनकी गरीबी उनका साथ छोड़ गयी .. देश में छोड़ने की कला तो बहुत पहले सीख ली गई थी. हां उसका ढिंढोरा पीटना अब सीखा है.. और ढिंढोरा पीटना भी एक कला है, जिसने सीख लिया उस का सिक्का हर जगह चला है, तो उचित है.. छोड़ने की कला सीखने के साथ-साथ ढिंढोरा पीटने की कला भी सीख लेने की जरूरत है “एक पंथ दो काज” इसे ही कहते हैं।