मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

साहित्य

दर्द एक एहसास

 —राज प्रिया रानी

बूंद बूंद पिघलती यादें बीती,

ढहती गई मुठ्ठी भर रेत सी

किसी आवारा इक बातास ,

रौंद गया री पतझर पात सी

सींचना चाहा लम्हे को,

मन   उजडे तरकश सा था

पल कहीं तो होगी साख दबी ,

इक सुराख बची तो होगी

सुलग रहा हो कहीं राख में ,

कहीं तो एक चिंगारी दबी

फूट रहा यूं हिय की गली ,

कुरेदा जिसने हजार सवाल

थम तो जा अब अश्रु धार ,

फिर अनजाना ठनी टीस

कोईचौखट खड़ा लिए कुछ खास,

मर्म थपकी था संग एहसास

दरकती भू पर फुहार पड़ी ,

वर्षा की शोखी अंगार सनी

दर्द दाडु सा है मीठा संगम ,

छुआ गम का असीम चरम

जिया टटोल रही हूं सहमी ,

कहीं तो अंतस उम्मीद बंधी

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