रबीन्द्र कुमार रतन ,स्वतंत्र लेखन
एक गावँ में धनवीर नामक ब्यक्ति रहता था । वह अपने व्यवसाय से गावँका सेठ बना हुया था ।व्यवसाय दिन दूना रात चौगुना बढता रहा । इधर व्यवसाय में विकास हो रहा था और उधर उसकी कृपणता एवं बेईमानी बढती जा रही थी । शादी और श्राद्ध में वह लोगों को बेरहमी से लुटता । दाम भी ज्यादा लेता और वजन भी कम देता ।
सुख सुविधा के रहते हए भी उसे आराम नसीब नहीं था । गावँ के लोग उसके इस व्यवहार से क्षुब्ध रहा करते थे । शोषण और कृपणता के कारण लोगों का स्नेह एवं प्यार उसे नहीं मिलता । ईश्वर भी मानो उस पर नाराज हीथे। अचानक एक दिन व्यवसाय के लिए निकले उसके बेटे की मृत्यु की खबर आई । इसके अगले ही दिन उसके गोदमों में चोरी हो गई ।
एकाएक आई विपत्तियों से वह उबर भी नहीं पाया था कि एक रात वह सोया था तो ज्ञात हुया कि उसकी दुकान में आग लग गई है । धनवीर के ऊपर मानो विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा । कहा भी गया है कि गलत संपत्ति जैसे आती है, वैसे ही चली जाती भी है । उसके दुख का परावार नहीं रहा ।अचानक प्रकाश पर अंधकार का साम्राज्य छा गया । संपन्नता के विपन्नता में बदल जाने सेउसकी मानसिक स्थिति विगड़ गई और वह विक्षिप्त दशा में गावँ की गलियों में भटकने लगा ।
दाढ़ी बढ़ गई, मानसिक स्तिथि बिगड़ गई । एक दिन उसे गावँ के ही एक आदमी ने बताया की बगल के मन्दिर पर एक महात्मा आए हए हैं । उनसे अपना दुखड़ा सुनाओ,उबरने का रास्ता वही बता देंगे । तुम्हरा कल्यान उन्हीं के द्वारा लिखा हो ।
वह उस महत्मा के पास गया तो देखा महत्मा सांसारिकता से ऊपरउठ ध्यान मगन हो समधि मे लीन है ।उनके चेहरे से एक प्रकार की आभा निकल रही है । मुख पर गम्भीर शान्ति, धेर्य एवं मुस्कुराहट विराजमान है ।आहट से उनकी तंद्रा भंग हुई । उन्होने सामने खडे ब्यक्ति से आने का कारण पूछा। उस विक्षिप्त सा लग रहे ब्यक्ति ने कहा महत्मा हमे बतायें कि किस कारण से मेरी यह स्तिथि हो गई, मेरा व्यवसाय चला गया, सम्पत्ति चली गयी, संतान चला गया,हँसता खेलता परिवार का सर्वनाश हो गया ।
महत्मा बोले प्यारे यह सब पूर्व जन्म के कर्यो का फल है,। महत्मा मेरा मार्ग दर्शन करें ।
महत्मा ने कहा पूर्व जन्म में तुमने अपने बड़े भाई के साथ इन्साफ नहीं किया । तुम्हरा बड़ा भाई ईमानदार , परोप्कारी और सदाचारी था जिसके कारण प्रगति के पथ पर बढ़ रहा था।जितना ही वह दान पुण्य करता , उतना ही उसकी सम्पत्ति में वृद्धि होती जाती थी ।उसकी प्रगति तुमसे देखी नहीं गई और तुमने उसके धन को हथियाने के लोभ मे उसकी ह्त्या कर दी । तुम्हारी प्रवल इच्छा धनवान बनने की थी। अत: इस जन्म मे तुम्हरा जन्म धनवीर व्यवसायी के रुप में हुया ,मगर आचरण तुम्हरा वही रह गया ।
तब धनवीर ने आकुल होकर कहा मेरे बड़े भाई का क्या हुया महात्मा ।
महत्मा शान्त चित्त बने रहे, फिर बोले ,तुम जिससे बातें कर रहे हो, वही उस जन्म मे तेरा बड़ा भाई था ।
यह सुनते ही वह बड़े भाई के पैर पर गिर क्षमा याचना माँगते हए काशी में जाकर पश्चाताप की आज्ञा उनसे मांगी। वह आत्मग्लानी के कारण बड़े भाई का पैर ही नहीं छोड रहा था। दोनों ही आंखो से प्रेम की अविरल अश्रु धारा बह चली जिसमें किये गये कर्मों का फल पाने के उपरांत जीने का मार्ग मिलता नजर आ रहा था । सच ही कहा गया है कि जो जस करहि सो तस फल चाखा ,।