मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

साहित्य

जलता तन या फिर मन

 प्रियांशु त्रिपाठी

 

उलझा रहा बड़ी देर तक

इस एक कशमकश में कि

जलता तन या फिर मन या दोनों ही जल जाते हैं

देर से आने वाले शख़्स

जल्दी क्यों चल जाते हैं

जन्म वाले छलकते आँसू सबके आँखों में सौंप कर

अकेले ही करने लगते है धरा से गगन को सफ़र

तकलीफ़ उन्हें ना हो वहाँ निकल पड़े बिन मौसम जाने

 है गर्मी या फिर ठिठुरन

उलझा रहा बड़ी देर तक इस एक कशमकश में कि

जलता तन या फिर मन

उलझा रहा बड़ी देर तक

इस एक कशमकश में कि

जलता तन या फिर मन या दोनों ही जल जाते हैं

समेट खुद में कितने रिश्ते और सोये ऐसे चैन से

 मानो बबुआ दफ़तर में लग गया

बिटिया भी ब्याही जा चूकी

लोन भी सब हो गये चुकता

नयी सड़क प्लॉट तक आ चुकी

जैसे शर्मा जी के घर से पानी

अब गलियारे तक ना आता है

 या फिर वो राजू सब्जी वाला दोपहर में कम शोर मचाता है

मानो खत्म हुए वो दुःख सारे

ये जीवन हुआ जैसे मधुवन उलझा रहा बड़ी देर तक

इस एक कशमकश में कि

जलता तन या फिर मन

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