मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

साहित्य

चने और जूते

ऋचा वर्मा

पत्नी ने जब चने का भूंजा और गुड़ दिया तो एक बार फिर सुनील के आगे वही  दृश्य जीवंत होकर उसकी आत्मा को छलनी करने लगा जब बाप दाखिल बड़े भाई ने पांच  किलो चने खातिर बखेड़ा खड़ा कर दिया था। “भईया को खबर तो होगी ही कि लॉकडाउन के कारण सभी अपने – अपने घर वापस लौट रहे हैं.. पर एक फोन तक नहीं किया “

सोचते – सोचते सुनील की आंखों की कोरें गीली हो गईं। उसने एक नजर अपने टूटे जूतों को देखा और एक नजर उस हाईवे को, जिसके अंतिम छोर पर उसके सपनों का नगर था।  अपने सपनों और जूतों दोनों को वहीं छोड़ वह आगे बढ़ने को विवश था ।

रास्ते में आये मीडिया मैन को उसने लगभग धकेल सा दिया..। दिल तो पहले से ही जख्मी था अब कोलतार की तपती सड़कें  पैरों को भी जख्मी बना रहे थे।

“भैया जवाब मत दो, पर लो मेरे जूते ले लो मैं कहीं खरीद लूंगा।” पलट कर देखा तो वही रिपोर्टर था। सुनील रूका जूते की तरफ देखा, उसके ही नाप के थे। बिना जूते का चलना बहुत मुश्किल था। उसने जूते पहनने शुरू ही किया था कि उसके मोबाइल की घंटी बज उठी देखा बड़े भाई का फोन था “कहां हो तुम.. हम लोग टीवी देख रहे हैं “

उसके भाई ने भर्राई आवाज में कहा,”आ रहा हूं भैया, रास्ते में हूँ चार पांच दिन लगेंगे”, सुनील ने जूता पहना, पत्रकार को झुककर धन्यवाद दिया। उसके दोनों  घाव पर मलहम लग चुके थे पैर पर जूते का मलहम और दिल पर भाई की प्यार भरी बातों का मलहम।

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