—-मधु रानी लाल
गुरु की महिमा क्या कहूँ,
गुरु तो ईश समान |
प्रखर सूर्य सम तेज है,
गरिमा बहुत महान ||
गुरु ही हैं इंसान के,
ज्ञान – रूप संसार |
निज अनुभव के ज्ञान से,
दूर करें अंधियार ||
गुरु ज्ञान की गंग बहा,
धोते मन का मैल
|उनके ही आशीष से,
चढ़ते पर्वत – शैल ||
गुरु कंचन – सा रूप गढ़,
देते हैं मृदु चोट |
ज्ञान – ताप के ज्वाल से,
भस्म करें सब खोट ||
ऐसा व्यापक रूप गुरु,
ज्यों विस्तृत आकाश |
झान – दीप उर में जला,
तन – मन किया प्रकाश ||
गुरु समान जग में नहीं,
कोई यहाँ विकल्प |
रखें मान गुरु का सदा,
ले ऐसा संकल्प ||
सम्मुख हूँ नि:शब्द नत,
किया ज्ञान – विस्तार |
कृपा आप मुझ पर किए,
वंदन बारम्बार ||