डॉ ध्रुव कुमार
89 वर्षीय आनंदी प्रसाद बादल। देश के जाने-माने चित्रकार, जिनके चित्रों में लोक-संस्कृति की गंध है, सामाजिक जीवन के विविध रंग है, जो दर्शकों को सम्मोहित करते हैं और बेचैन भी । उनके चित्रों में ग्राम संस्कृति के रंग कला पक्ष के साथ सामाजिक और राजनीतिक विद्रूपताओं के परत-दर-परत उभरता है I एक चित्रकार के रंगों की भाषा, भाव व सोचने की सृजन-प्रक्रिया कैनवास पर कैसे उतरती है, उन्हें इस अवस्था में भी पेंटिंग करते हुए देखकर महसूस किया जा सकता है।
11 जनवरी 1933 को पूर्णिया जिले के श्रीपुर में जन्मे आनंदी बादल विगत कई दशक से पटना के श्रीकृष्णपुरी मुहल्ले में अपने पुत्र अशोक बादल, मुकेश बादल, पुत्रवधू मिलन बादल, मधुलता बादल और पोते-पोतियों के साथ रहते हैं I
वे कहते हैं – ” चित्रकार की भाषा रंगो, रेखाओं के साथ एक नई दुनिया का सर्जन करने लग जाता है I कलाकार एक ऐसी दुनिया का निर्माण करता है, जहां शून्यता नहीं, विचारों का अथाह सागर रहती हो । जिस्म भरना चाहता है वह अपनी गढ़ी हुई आकृतियों से देश दुनिया को कुछ देना चाहता है । बिम्बों के माध्यम से वह अपनी साधना को रूपांतरित करता है । वस्तुतः चित्रकार अपने समय और समाज का प्रतिबिंबन करता है जो कभी साफ तो कभी धुंधला सा दिखता है। “
आनंदी प्रसाद बादल
चित्रों के रेखांकन की समय या पहले उनके दिल दिमाग में क्या चल रहा होता है ? के जवाब में वे कहते हैं- ” चित्रकला में कौशल तकनीक एवं विचारों का सवाल किसी भी चित्रकार के लिए उतना ही जरूरी है, जितना सृजन-कर्म । निरंतर नया सूचना, गणना और सर्वदा नए ढंग से देखना ही कलाकार को जिंदा रख सकता है ।
जब भी चित्रकारी से फुर्सत हुई तो कविताएं भी लिखी और अनेक पुस्तकें भी । वैसे बचपन में उन्होंने नाटक भी खेले। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में मूर्त रंग-अमूर्त रेखाएं, मेरी कला यात्रा, मैं हूं बादल, मेरे शब्द – मेरे चित्र, मेरे अमूर्त क्षण, श्रद्धांजलि और प्रभाव ।
ढाई हजार से अधिक पोट्रेट बना चुके आनंदी प्रसाद बादल चित्रों के भाव आकार देने के साथ-साथ अक्षरों में जब उसे बांधने लगे तो शब्दों से कविता ने जन्म लिया। वे कहते हैं -” कविताएं उनके हृदय की भावनाओं की ही उपज है। सहज भाव से मैंने अपने भावों को शब्दबद्ध किया है ।जब जैसा विचार आया, उसे शब्दों में भर दिया। उनके इन भावों को इस कविता में देखा और समझा जा सकती है :-
मैं बादल हूं
बिन मांगे बरसात का जनक,
मुझे पाकर लहलहाती है फसल,
मेरे स्नेह-बूंद से खिलती हैं
नन्ही नन्ही कलिया मुझे देख
सभी इतराते हैं – हर्षाते हैं,
केवल कांटे ही मुरझाते हैं,
कांटे कैसे स्वीकार करेंगे मुझे
जिसे चुभना ही है आता,
मैं किसी के लिए स्याही,
किसी की आंखों का काजल हूं,
मैं बादल हूं मैं शान हूं किसान की,
कला के अभिमान की,
साधकों के स्वर्ण विहान की,
कृष्ण की बांसुरी की तान की,
मानवता के प्राण की,
उमर-घुमड़ यहां-वहां गरजता हूं,
लरजता हूं,
हां, मैं बादल हूं I