–● हरिनारायण सिंह ‘हरि’
अम्मा मन में सोच रही है
किस बेटे की आस लगाऊँ
जिसको सब दिन पाला-पोसा
उससे रूखा-रूखा पाऊँ
रंग-ढंग बेटों के बदले
कटे-कटे-से वे अब रहते
बीवी चढ़ी-चढ़ी रहती हैं/ सबकी है
बेचारे सबकुछ हैं सहते
मन की बात कहूँ किनसे मैं
रह-रह केवल झिड़की खाऊँ!
सबके अपने-अपने बेटे
भर पाँजे में उन्हें समेटे
सबकी अपनी-अपनी चाहत
सबके मन में सपने लेटे
मैं बाधा बन वहाँ उपस्थित
कैसे मैं मन को समझाऊँ !
वे तो चले गये ईश्वर घर
‘किस दोजख में फेंक गये हैं
मैं मुँहतक्की बनी हुई हूँ
मिलते तेवर नये-नये हैं
अम्मा मना रही मन-ही-मन
मैं भी कैसे उस घर जाऊँ!