मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

शिक्षा का बाज़ारीकरण, सरकारी उपेक्षा और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में लगातार कमी

—  नीरव समदर्शी

प्रत्येक वर्ष 5 सितंबर को हम बड़े गर्व से शिक्षक दिवस मनाते हैं—महान शिक्षाविद और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की स्मृति में। पर यह दिन भी अब 15 अगस्त और 26 जनवरी की तरह सिर्फ रस्म अदायगी बनकर रह गया है। ज़मीनी हकीकत यह है कि देश की शिक्षा व्यवस्था में लगातार गिरावट आ रही है, और सरकारी विद्यालयों की स्थिति चिंताजनक होती जा रही है।

निजी शिक्षा: ज्ञान नहीं, कारोबार —

देश में निजी शिक्षा संस्थानों का बाज़ार अब एक बहु-हज़ार करोड़ का उद्योग बन चुका है।

रिपोर्ट के अनुसार, भारत का शिक्षा बाज़ार वर्ष 2023 में लगभग ₹7.8 लाख करोड़ का था, और 2025 तक इसके ₹10 लाख करोड़ पार कर जाने की संभावना है।National Sample Survey (NSS 75th Round) के अनुसार, शहरी भारत में लगभग 75% छात्र निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं।

इन संस्थानों में शिक्षा नहीं, बल्कि परीक्षा में अंक लाना ही सर्वोच्च प्राथमिकता बन गया है। बच्चों को रट्टा मारने और अंधी प्रतियोगिता में झोंकने से समझ आधारित शिक्षा का ह्रास हुआ है।

सरकारी विद्यालय: योजनाएँ बहुत, शिक्षा कम —

सरकारी विद्यालयों में मिड-डे मील, साइकिल, पोशाक और छात्रवृत्तियाँ दी जा रही हैं, परन्तु गुणवत्ता की स्थिति बेहद खराब है।

ASER रिपोर्ट 2023 (Annual Status of Education Report) के अनुसार, ग्रामीण भारत में कक्षा 5 के केवल 43% छात्र ही कक्षा 2 का पाठ ठीक से पढ़ पाते हैं।

गणित की स्थिति और भी बदतर है, जहां केवल 26% छात्र ही कक्षा 3 का भाग हल कर पाते हैं।

UDISE+ रिपोर्ट 2021–22 के अनुसार, देश के लगभग 1.1 लाख सरकारी स्कूलों में एक भी

पूर्णकालिक शिक्षक नहीं है।15% से अधिक स्कूलों में मल्टीग्रेड टीचिंग होती है — यानी एक ही शिक्षक एक साथ कई कक्षाएँ पढ़ा रहा है।

इसका सीधा मतलब है कि शिक्षा की बुनियाद ही कमजोर है। योजनाएँ काग़ज़ों पर तो बहुत हैं, पर ज़मीनी क्रियान्वयन में भारी खामियाँ हैं।

निजी संस्थानों की बढ़ती मांग: सरकारी असफलता का प्रमाण आज मध्यम वर्गीय और यहाँ तक कि निम्न वर्गीय अभिभावक भी कर्ज लेकर बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। यह साफ संकेत है कि सरकारी स्कूलों में भरोसा टूट चुका है।Centre for Budget and Governance Accountability (CBGA) की रिपोर्ट के अनुसार,भारत में शिक्षा पर कुल सार्वजनिक खर्च GDP का केवल 2.9% है, जबकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में 6% खर्च करने की सिफारिश की गई है।

यह सीधे तौर पर सरकार की इच्छा-शक्ति की कमी को दर्शाता है। अगर शिक्षा प्राथमिकता होती, तो बजट और संसाधनों की यह किल्लत नहीं होती।

सत्ता और निजी संस्थानों की साँठगाँठ?
इस सबके बीच एक गंभीर प्रश्न यह भी है: क्या यह शिक्षा का बाज़ारीकरण एक योजना के तहत हो रहा है?
कई राज्यों में देखा गया है कि सरकारी स्कूल बंद कर उन्हें निजी हाथों में सौंपा जा रहा है।
राजनीतिक नेता खुद अपने बच्चों को निजी या विदेशों के महंगे स्कूलों में पढ़ाते हैं—इससे साफ है कि उन्हें सरकारी शिक्षा प्रणाली पर विश्वास नहीं है।

ऐसे में यह आशंका निराधार नहीं कि सत्ता और पूंजीपतियों के बीच एक अघोषित गठजोड़ है, जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था को जानबूझकर कमजोर कर रहा है।

निष्कर्ष: डॉ. राधाकृष्णन की आत्मा सचमुच रो रही होगी…डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने शिक्षा को केवल ज्ञान नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण, नैतिकता और चिंतनशीलता का माध्यम माना था। आज जब शिक्षा सिर्फ अंकों की दौड़ और व्यवसायिक लाभ का साधन बन गई है, तो यह स्पष्ट है कि हम उनके आदर्शों से भटक चुके हैं।

अगर हमें भारत को एक सशक्त, आत्मनिर्भर और नैतिक राष्ट्र बनाना है, तो शिक्षा को व्यापार से निकाल कर सेवा के रूप में पुनर्स्थापित करना होगा।

इसके लिए सरकारी विद्यालयों को सशक्त बनाना, शिक्षकों की नियुक्ति, प्रशिक्षण और सम्मान सुनिश्चित करना,और शिक्षा बजट को वास्तविक रूप से बढ़ाना जरूरी है।
अन्यथा, हम हर 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाते रहेंगे—और शिक्षा तंत्र वैसे ही जर्जर होता जाएगा।

 

LEAVE A RESPONSE

Your email address will not be published. Required fields are marked *