मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

“माँ का अपमान” विवाद— सवालों के घेरे में सियासी तूफ़ान

 ——- नीरव समदर्शी

भारतीय समाज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ महिला सम्मान को पारिवारिक और सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार माना जाता है। गांव–कस्बों से लेकर महानगरों तक, किसी भी परिवार की स्त्री पर आंच आने को लोग अपनी इज्जत का सवाल मानते हैं। यही कारण है कि अक्सर लोग अपमानजनक स्थितियों को झेलकर भी प्राथमिकी दर्ज कराने से बचते हैं, ताकि घर की मर्यादा बनी रहे।

लेकिन आज की राजनीति में हालात उलटे दिखाई दे रहे हैं। दरभंगा की एक सभा में कथित तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दिवंगत माता को लेकर भद्दी गालियाँ दी गईं—ऐसा भाजपा का दावा है। प्रधानमंत्री स्वयं इसे संसद से लेकर चुनावी मंच तक दोहरा रहे हैं।

मगर हैरत की बात यह है कि कहीं भी वे शब्द सामने नहीं आए, जिनके आधार पर यह शोर मचाया जा रहा है। न किसी समाचार चैनल ने प्रमाण पेश किया, न ही किसी वीडियो में स्पष्ट गाली सुनी गई। ऐसे में सवाल उठता है—

जब आम लोग सचमुच घटित अपमान को भी चुपचाप सह जाते हैं, तो भाजपा के प्रखंड स्तर के नेता से लेकर प्रधानमंत्री तक बिना प्रमाण के रोना-धोना क्यों मचा रहे हैं?

अबतक मिली जानकारी के  अनुसार अभद्र शब्दों का प्रयोग करने वाला पंचर बनाने का कार्य करता है |अबतक उसके राजद या कॉंग्रेस से जुड़े होने का कोई पुख्ता प्रमाण प्रशासन द्वारा सार्वजनिक नही हुआ है | क्या यह “माँ का अपमान” दरअसल किसी पंचर बनाने वाले की की कथित गाली थी, या फिर भाजपा ही बार-बार उसे दोहरा कर गालियाँ जनता के कानों तक पहुँचा रही है?

राजनीति में भावनाओं को भुनाना कोई नई बात नहीं। लेकिन मातृत्व का सम्मान ऐसा विषय है जिसे चुनावी हथियार बना देना समाज के साथ अन्याय है। यदि गाली का प्रमाण है तो सामने आना चाहिए, और यदि प्रमाण नहीं है तो भाजपा का यह अभियान केवल राजनीतिक प्रायोजन (political orchestration) के सिवा कुछ नहीं।

आखिरकार, यह देश उन संस्कारों से बना है जहाँ माँ को देवत्व का दर्जा मिला है—“मातृदेवो भव”। ऐसे में किसी अपुष्ट अफ़वाह को “माँ का अपमान” बताकर राजनीति करना न केवल लोकतांत्रिक विमर्श को हल्का करता है, बल्कि उस माँ की गरिमा को भी आघात पहुँचाता है जिसके नाम पर सियासत हो रही है।

 

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