मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

“जूता, न्याय और जनविश्वास: क्या संविधान की अंतिम उम्मीद भी संकट में है?”

नीीव समदर्शी

देश की सर्वोच्च अदालत में जो दृश्य देखने को मिला, वह भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने के लिए गहरी चिंता का विषय है। ऐसी स्थिति इसके पूर्व कभी आपातकाल मे भी नही देखी गई। जिस सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरूध टिप्पणी करना अपराध की श्रेणी मे आता है वहां एक अधिवक्ता ने मुख्य न्यायाधीश के समक्ष जूता फेंका और नारा लगाया—“सनातन का अपमान अब नहीं सहेगा हिंदुस्तान।” यह केवल एक अदालत में अनुशासन भंग की घटना नहीं थी; यह उस सामाजिक उग्रता का प्रतीक बन गई है, जो न्याय और धर्म के बीच की रेखा को धुंधला करने लगी है।
“सनातन धर्म” का मूल दर्शन अहिंसा, सहिष्णुता और आत्मसंयम में निहित है। वेद, उपनिषद और गीता जैसे ग्रंथ नैतिकता व आत्म-नियंत्रण को सर्वोच्च मानते हैं। किंतु जब धार्मिक प्रतीकों का उपयोग राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है, तो भावनाएँ भड़कती हैं । आधुनिक भारत में “हिंदुत्व” की राजनीतिक व्याख्या और “सनातन” की धार्मिक व्याख्या में हिन्दुत्व और सनातन की मूल भावना को नजरअंदाज करने कीविकसित हो चुकी प्रवृत्ति से बढ रहा जनाक्रोश भारतीय लोकतंत्र को आक्रामकता की ओर ले जाता प्रतीत लेने लगा है।

धर्म किसी भी रूप में हिंसा का समर्थन नहीं करता, परंतु राजनीति जब धर्म के वस्त्र में उतर आती है, तो जूते, नारे और नफरत न्यायालयों की देहरी तक पहुँच जाती है। यही क्षण सबसे खतरनाक होता है — जब कानून की जगह आस्था की उत्तेजना ले लेती है।
पिछले दस वर्षों में केंद्र की प्रमुख एजेंसियों — ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग — पर “सत्तापक्ष की ओर झुकाव” के आरोप लगातार गूंजते रहे हैं।
तथ्य भी कुछ हद तक इस धारणा को बल देते हैं:

ईडी (Enforcement Directorate) ने 2014 से 2024 के बीच लगभग 5,200–5,900 मामले दर्ज किए, किंतु दोषसिद्धि दर बेहद कम रही (कुछ रिपोर्टों के अनुसार केवल 0.5% से भी कम)।
इन मामलों में अधिकांश आरोपी विपक्षी दलों से जुड़े रहे, जिससे एजेंसी की निष्पक्षता पर जनसंदेह गहराया।
सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा का 2018 वाला मामला इसका उदाहरण है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप कर निदेशक की बहाली करनी पड़ी — यह एजेंसी की स्वायत्तता पर सवाल खड़े करने वाला प्रसंग था।
चुनाव आयोग पर भी कई बार यह आरोप लगा कि वह सत्तारूढ़ दल की रैलियों और नेताओं पर ‘मृदु दृष्टि’ रखता है, जबकि विपक्षी दलों पर तत्पर कार्रवाई करता है।
इन सबके बीच एक ही संस्था बचती है, जिस पर लोकतंत्र का अंतिम भरोसा टिका है — सर्वोच्च न्यायालय।
न्यायपालिका ने कई बार अपनी संवैधानिक शक्ति का परिचय दिया है। सबरिमला मामला हो या सीबीआई निदेशक प्रकरण, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान को सर्वोपरि रखा। लेकिन अयोध्या फैसला (2019) और उसके बाद धार्मिक आधार पर उत्सवों में शामिल होती संवैधानिक संस्थाओं की छवियाँ न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठाने का मौका देती हैं।
हाल ही में प्रधानमंत्री का मुख्य न्यायाधीश के आवास पर गणेश-पूजन में शामिल होना एक प्रतीकात्मक घटना बन गई — जिसने न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच आवश्यक दूरी पर बहस छेड़ दी। भले ही यह एक सामाजिक आयोजन हो, पर न्याय व्यवस्था केवल न्याय करने से नहीं, बल्कि न्याय “दिखने” से भी भरोसा अर्जित करती है।

संविधान का अनुच्छेद 50 न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच अलगाव को अनिवार्य बनाता है। किंतु आज जनता का एक बड़ा वर्ग यह महसूस कर रहा है कि यह अलगाव धीरे-धीरे धुंधला पड़ रहा है।
जब धार्मिक नारों की गूँज न्यायालय की दीवारों तक पहुँचने लगे,
जब एजेंसियाँ राजनीतिक हथियार बन जाएँ,
और जब न्यायिक प्रतीक सत्ता के समीप दिखने लगें —
तब संविधान की आत्मा घायल होती है।

फिर मै नही मानता की उम्मीद खत्म हो चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय अब भी कई संवेदनशील मामलों में सरकार के खिलाफ फैसले दे रहा है, कई बार कठोर टिप्पणियाँ करता है, और लोकतांत्रिक संतुलन बनाए रखने की कोशिश में है।
लेकिन यह भी सत्य है कि विश्वास खोना एक धीमी मौत होती है — और संस्थाएँ एक बार विश्वास खो दें, तो कानून के शब्द भी खोखले लगते हैं।

इन स्थितिये से बचने के लिए
एजेंसियों की जवाबदेही बढ़ाई जाए — हर वर्ष केसों, अभियोगों और दोषसिद्धियों का सार्वजनिकईमानदारी से डेटा जारी की जाए।

न्यायपालिका-कार्यपालिका की सार्वजनिक दूरी सुनिश्चित हो — ताकि किसी “पक्षधरता” की छवि न बने।
. धार्मिक भावनाओं और संवैधानिक मर्यादा के बीच स्पष्ट सीमाएँ तय हों जिसमे देश के निष्पक्ष शिक्षाविदो से सहायता ली जाय।
धर्म व्यक्तिगत आस्था है, कानून सार्वजनिक आस्था।यह हमे समझना होगा।
मीडिया और सिविल सोसायटी की स्वतंत्र समीक्षा को प्रोत्साहन मिले — क्योंकि लोकतंत्र केवल संस्थानों से नहीं, निगरानी से चलता है।
जूता फेंकने वाले का नारा भले ही सनातन के नाम पर था, पर उसका कर्म सनातन की आत्मा के विरुद्ध था।
और यदि कभी जनता न्यायपालिका को भी “एक पक्ष” मानने लगे, तो वह दिन लोकतंत्र का सबसे अंधकारमय दिन होगा।

सर्वोच्च न्यायालय को अब केवल संविधान का रक्षक नहीं, बल्कि जनविश्वास का पुनर्निर्माता बनना होगा —
क्योंकि जब न्याय का मंदिर ही संदेह के घेरे में हो,
तब संविधान की आख़िरी उम्मीद भी अदालत के फर्श पर गिर जाती है —
जूते के साथ।

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