भारत हाल ही में विश्व बैंक का सबसे बड़ा कर्जदार देश बन गया है। आदतन सत्ता समर्थक लोग सोशल मीडिया पर इसे भी देश का गौरब बढना बता रहे है ।तर्क यह दिया जा रहा है कि कर्ज उसी को मिलता है जिसमे लौटाने की क्षमता हो।बात सही भी है किन्तु जीवन यापन के लिए लिया कर्ज नही बल्कि व्यापार वृद्धि के लिए लिया कर्ज क्षमता प्रदर्शित करता है ।यह कर्ज सिर्फ आर्थिक आवश्यकता का परिणाम नहीं है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं (विश्व बैंक और IMF) की संरचना और राजनीति से भी जुड़ा हुआ है।
हम जानते है कि विश्व बैंक पर विकसित देशों का नियंत्रण है।
विश्व बैंक और IMF में वोटिंग अधिकार पूंजी अंशदान (Capital Contribution) पर आधारित हैं।
अमेरिका अकेले लगभग 16% वोटिंग शेयर रखता है।
G7 देश मिलकर 40% से अधिक वोटिंग ताकत रखते हैं।
यानी, नीतियाँ और शर्तें विकसित देशों के हित में बनती हैं। गरीब और विकासशील देशों का सामूहिक प्रभाव अपेक्षाकृत बहुत कम है।
ऐसे मे यह समझना अनिवार्य है कि भारत जैसी बड़ी जनसंख्या वाले देशों को कर्ज क्यों दिया जा रहा है?
भारत की विशाल 140 करोड़ की जनसंख्या उसे विश्व का सबसे बड़ा उपभोक्ता बाज़ार बनाती है। जब भारत आधारभूत ढाँचा, ऊर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में कर्ज से निवेश करता है, तो इनसे उत्पन्न अवसरों का लाभ अंततः विकसित देशों की कंपनियों को मिलता है।
कच्चे माल की खपत: भारत की ऊर्जा और औद्योगिक मांग विदेशी सप्लायरों के लिए स्थायी बाज़ार बनाती है।
: 2024 में भारत का आयात 720 अरब डॉलर तक पहुँच गया, जबकि निर्यात केवल 437 अरब डॉलर रहा। यानी विदेशी कंपनियाँ भारत में आसानी से अपना सामान बेच रही हैं।
यहा यह समझना भी जरुरी है कि भारत को इतना सारा कर्ज किन शर्तो पर मिलता है और इस मे विकशित देशो का क्या खेल होता है?
विश्व बैंक और IMF कर्ज देते समय “Structural Reforms” की शर्त लगाते हैं। इन शर्तों से भारत जैसे देशों की नीतियाँ बदलती हैं:
सब्सिडी कम करना (कृषि और ऊर्जा पर सीधा असर)
बाज़ार खोलना (विदेशी निवेशकों को आसान प्रवेश)
श्रम और पर्यावरण नियमों में ढील
टैक्स और कानूनी ढाँचा विदेशी कंपनियों के अनुकूल करना
उदाहरण: 1991 के आर्थिक संकट के दौरान IMF कर्ज के बदले भारत को बाज़ार उदारीकरण लागू करना पड़ा, जिससे विदेशी कंपनियों का प्रवेश आसान हुआ।
भारत को कर्ज से अल्पकालिक लाभ जरूर होता है—बुनियादी ढाँचे और सामाजिक योजनाओं के लिए पूंजी तुरंत मिलती है। लेकिन दीर्घकाल में विदेशी निर्भरता और आयात का दबाव बढ़ता है।
2014–2024 में भारत का बाहरी कर्ज 432 अरब डॉलर से बढ़कर 624 अरब डॉलर हो गया।
इसी दौरान चालू खाते का घाटा (CAD) औसतन GDP का 2% से 3% तक बना रहा।
ऐसा कहा जा सकता है कि चीन जैसा देश भी विश्व बैंक का सबसे बडा कर्जदार रह चुका है?यह बात सही है किन्तु अभी चीन से तुलना ही बल्कि सीख लेने की जरूरत है।
चीन ने शुरुआत में विश्व बैंक से कर्ज लिया, लेकिन:
निर्यात को 2000 में 249 अरब डॉलर से बढ़ाकर 2020 तक 2.6 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचा दिया।
विदेशी निवेश को ‘Joint Venture’ और ‘Technology Transfer’ की शर्तों पर बाँधा।
घरेलू बैंकों को मज़बूत कर बाहरी कर्ज पर निर्भरता घटाई।
आज चीन खुद 100+ देशों को कर्ज देने वाला बन चुका है।
निष्कर्ष
भारत जैसी बड़ी जनसंख्या वाले देशों को कर्ज देना विकसित देशों के लिए सिर्फ मानवीय मदद नहीं है, बल्कि रणनीतिक निवेश है। इससे वे भारत को अपने बाज़ार के रूप में स्थायी बनाए रखते हैं और नीतिगत बदलाव अपने हित में करवा लेते हैं।
सवाल यह है कि भारत कर्ज को केवल “डेवेलपमेंट” का साधन बनाएगा या चीन की तरह आत्मनिर्भर उत्पादन, निर्यात और वित्तीय ढाँचा विकसित कर विदेशी शर्तों पर निर्भरता से बाहर निकलेगा?