मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

आध्यात्मिक चेतना से विश्व को एक सूत्र में पिरोना चाहते थे सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन

डॉ ध्रुव कुमार

पटना

विश्व के अशांतिमय जीवन को आध्यात्मिक चेतना द्वारा समृद्धिशाली बनाने की दिली चाहत रखने वाले सर्वपल्ली राधाकृष्णन दुनिया के आधुनिक दार्शनिकों में अपना सर्वश्रेष्ठ स्थान सुनिश्चित करते हैं I

उनका मानना था कि ईश्वर सत, चित्त व आनंद से समन्वित है और आत्मा में भी उसका अंश है I  ज्ञान से युक्त होने पर आत्मा को परमात्मा का साहचर्य प्राप्त होता है I एक दार्शनिक के रूप में उनके शिक्षा दर्शन में धार्मिक, नैतिक एवं लोक कल्याणमय विचारों का सामंजस्य, भारतीय संस्कृति के प्रति उदार भाव और विश्व-बंधुत्व की भावना को प्रमुखता प्राप्त है I वह समाज को ऐसे श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित रूप में विकसित करना चाहते थे, जिसमें प्रत्येक मनुष्य को अपना योगदान का पूरा अवसर मिल सके I

वे संसार को एक आध्यात्मिक धरातल पर खड़ा करने के पक्ष में थे और एक विश्व धर्म की कल्पना करते थे I वे इसके द्वारा ही विश्व के भौतिक स्वरूप में आत्मा का संसार संभव मानते थे I उनका मानना था कि संसार के सभी मनुष्य एक ही परिवार के सदस्य हैं I अतः हमें एक दूसरे की सभ्यता-संस्कृति और राष्ट्रीयता का सम्मान करना चाहिए I भौतिकता  और स्वार्थ से दूर हट कर हम आध्यात्मिक मनोवृति का विकास करें और प्रत्येक मनुष्य को अपना हितैषी तथा बंधु समझें I आध्यात्मिक चिंतन द्वारा आत्म विकास करते हुए मन, वचन और कर्म से अपने समाज, राष्ट्र और विश्व के कल्याण में जुट जाएं I

उनका यह भी मानना था कि
मनुष्य के विचारों को स्पष्ट बनाने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है I शिक्षा के जरिए ही बालकों को शिष्ट, चरित्रवान और स्वावलंबी नागरिक के रूप में तैयार किया जा सकता है I
उनका मानना था कि शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास अर्थात उसके बौद्धिक, आध्यात्मिक, नैतिक चारित्रिक और शारीरिक शक्तियों का समन्वित विकास I उनका यह भी मानना था कि आधुनिक शिक्षा प्राय: बौद्धिक या मानसिक शक्ति के विकास पर अधिक बल देती है I यानी इसका संबंध भौतिक समृद्धि से अधिक आध्यात्मिक विकास से कम है I ऐसे में हम यह भूल जाते हैं कि भौतिकता पर विजय प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिकता का विकास आवश्यक है I

वह शिक्षा को पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करने या परीक्षा पास करने का साधन मात्र नहीं मानते I शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य आंतरिक शक्तियों को विकसित, प्रशिक्षित तथा अनुशासित करने के साथ ही शिक्षार्थी को रूढ़िगत विचारों तथा अंधविश्वास के बंधन से मुक्त करना है I उसे कृत्रिम जीवन जीने की अपेक्षा प्रकृति के निकट संपर्क स्थापित करना सिखाना है I आध्यात्मिक प्रवृत्ति का विकास कर उसमें लोक कल्याण की भावना भरना है I त्याग, निस्वार्थ सेवा भाव तथा परमात्मा में आस्था रखने वाला व्यक्ति ही समाज और राष्ट्र का उत्थान कर सकता है I

वे शिक्षा के पाठ्यक्रम में दर्शन, साहित्य, विज्ञान, नीतिशास्त्र  राजनीति शास्त्र, वेदांत या अध्यात्म, भूगोल, इतिहास, कृषि, विज्ञान, अर्थशास्त्र और मानव विज्ञान आदि विषयों को स्थान देने के पक्ष में थे I

उनकी नजर में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धार्मिक अज्ञानता या धार्मिक संकीर्णता नहीं है बल्कि धार्मिक अध्यात्मिकता का है I इसका विकास करने के लिए सभी धर्मों के महापुरुषों की जीवनी को पाठ्यक्रम में स्थान सुनिश्चित किए जाने के पक्ष में थे I वे धार्मिक ग्रंथों से जीवन के लिए उपयुक्त सामग्री का चुनाव कर उसे पढ़ाये जाने को अनिवार्य किए जाने के पक्ष में थे I

शिक्षकों के बारे में उनकी राय थी कि शिक्षकों को आचार्य इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनका आचरण अनुकरणीय होता है I

शिक्षक शिष्यों को सत्यधर्म तथा सद्गुणों के पालन की प्रेरणा देता है I उनमें उदारता? सहानुभूति, साहस और शौर्य की भावना का विकास करता है I वह केवल कुछ सूचनाएं और पुस्तकीय ज्ञान ही न देकर शिक्षार्थी में आत्मिक शक्ति का संचार भी करता है I शिक्षक के व्यक्तित्व और शिष्य के मस्तिष्क के बीच शिक्षा की धारा प्रवाहित होती रहती है I उनका यह भी मानना था कि शिक्षक के व्यक्तिगत प्रभाव के अभाव में शिक्षण यंत्रवत हो जाता है I शिक्षार्थी के लिए शिक्षक का प्रवचन या भाषण उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उसका व्यक्तिगत जीवन आशा और आदर्श वे अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षक के आचार विचार का अनुकरण करते रहते हैं अतः शिक्षक को चाहिए कि वह ज्ञान का प्रस्तुतीकरण किस प्रकार करें कि शिष्य उसके प्रकाश में अवलोकित हो उठे I

 

 

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