मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

संपूर्ण क्रांति के प्रणेता

 देवांशु शेखर मिश्र

‘क्रांतियां क्रांतिकारियों की बिल्कुल मर्जी पर ही नहीं हुआ करती। क्रांति की सफलता के लिए सामाजिक एवं ऐतिहासिक परिस्थितियां परिपक्व होनी चाहिए।’ ये शब्द देश के सर्वाधिक संघर्षशील राजनीतिज्ञ जयप्रकाश नारायण जी का है,जो आज भी प्रासंगिक है। निस्संदेह जेपी जैसे महान विभूति जो सदियों में जन्म लेती है और समस्त लोगों के उत्थान के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देती है।

अमूमन गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित जेपी सत्याग्रह के द्वारा सत्ता से अपनी बात मनवाने के पक्षधर थे। उनका मानना था कि सत्ता पर जनता का हक है ना की जनता पर सत्ता का। 11 अक्टूबर, 1902 को सारण जिले के सिताबदियारा गांव में जन्मे जेपी आजादी के बाद जन आंदोलन के प्रणेता माने जाते हैं। हालांकि उन्होंने कभी भी सत्ता का उपभोग नहीं किया। आजादी के बाद नेहरू जी जेपी को सरकार में जगह देना चाहते थे, लेकिन जेपी ने सत्ता से दूर रहना ही पसंद किया। लोकनायक के संपूर्ण राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि उन्हें सत्ता का मोह नहीं था। इसी वजह से नेहरू की इच्छा की अवहेलना करते हुए वे सत्ता में शामिल नहीं हुए। वे सत्ता में पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही के पक्षधर थे।   जब पटना में मौलाना आजाद का भाषण सुन कॉलेज छोड़ने का निश्चय किया तो वह युवा जयप्रकाश की भावुकता हीं नहीं थी। फिर जयप्रकाश 1922 में उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका गए। 1929 तक कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय एवं विसकांसिन  विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र का अध्ययन किया। अमेरिका में उन्होंने मार्क्सवाद की दीक्षा ली, लेकिन दीक्षा लेकर स्वदेश लौटने पर उन्हें साम्यवादियों ने नहीं गांधी ने प्रभावित किया। मार्क्सवादी जेपी ने कहा कि हम गांधी को पूर्णता भले ही अंगीकार न करें पर हम उन्हें पूर्णतः अस्वीकार भी नहीं कर सकते। इसी सत्य के तहत उन्होंने भारत को आजाद कराने के लिए गांधीजी का कुशल नेतृत्व स्वीकार किया और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। दांडी यात्रा नमक सत्याग्रह औरअसहयोग आंदोलन तथा अंत में भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई।

 1929 में अमेरिका से लौटने के पश्चात उनका संपर्क गांधीजी के सहयोगी पंडित जवाहरलाल नेहरू से हुआ। वे उन से प्रेरित होकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया। 1932 में गांधी नेहरू और अन्य महत्वपूर्ण कांग्रेसी नेताओं के जेल जाने के पश्चात उन्होंने भारत में अलग-अलग स्थलों में संग्राम का नेतृत्व किया। अंततः उन्हें भी मद्रास में सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया, और नासिक जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की, जो समाजवाद की हिमायती थी। जब कांग्रेस ने 1934 में चुनाव में उतरने का मन बनाया तो जे पी और उनकी पार्टी ने इसका जमकर विरोध किया।   1939 में उन्होंने अंग्रेज सरकार के खिलाफ लोक आंदोलन का नेतृत्व किया। इस दौरान उन्होंने टाटा स्टील कंपनी में हड़ताल कराई,ताकि अंग्रेजों को इस्पात ना पहुंचे और राजस्व रोकने का अभियान चलाए।जेपी को गिरफ्तार कर लिया गया, और 9 महीने की सजा मुकर्रर की गई। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हथियारों के उपयोग को हीं सही समझा और नेपाल जाकर आजाद दस्ते का गठन किया। इसी क्रम में उन्हें पंजाब में चलती ट्रेन में सितंबर 1943 में गिरफ्तार कर लिया गया। 16 महीने पश्चात जनवरी 1945 में उन्हें आगरा जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। तदुपरांत गांधी जी ने स्पष्ट कर दिया था कि लोहिया और जेपी की रिहाई के बिना अंग्रेज सरकार से कोई समझौता नामुमकिन है। दोनों को अप्रैल 1946 में आजाद कर दिया गया। 1948 में उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी दल का नेतृत्व किया। और बाद में गांधीवादी दल के साथ मिलकर समाजवादी सोशलिस्ट पार्टी के सर्वोदय आंदोलन के लिए जीवन समर्पित करने की घोषणा की ।वे पूरी निष्ठा के साथ सर्वोदय के सारे कार्य करते रहे। सर्वोदय आंदोलन के माध्यम से जेपी ने समाजवाद तक पहुंचने का प्रयास किया। परंतु सर्वोदय का धीरे-धीरे सरकार से जुडाव जेपी को अनुचित लगा। वे देख रहे थे कि सरकारी संरक्षण के कारण नीचे से चलने वाली समाज रचना की प्रक्रिया कुंठित होती जा रही है। वे यह समझ नहीं पा रहे थे या समझना नहीं चाहते थे की सर्वोदयी समाज की रचना और लोकतंत्री सरकार में भी विरोध हो सकता है। यहीं जेपी विनोबा से अलग हुए।

हालांकि विनोबा जी से दृष्टि भेद को उन्होंने स्पष्ट किया है। सर्वोदय आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे से मेरे मतभेद की चर्चा की जाती है। वे अहिंसक क्रांति के सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता और मार्गदर्शक है। उस आंदोलन से जुड़े रहने के कारण मैं अपने और विनोबा जी के इस दृष्टि भेद को स्पष्ट कर दूं, विनोबा जी आज भी यह मानते हैं कि राजनीतिक ढांचे में संघर्ष के बिना भी परिवर्तन हो सकता है, शांतिमय संघर्ष के बिना भी ग्राम स्वराज के काम का बरसों का मेरा अनुभव यह रहा है कि यह संगठन यदि काम करें तो बहुत उपयोगी हो सकता है ।किंतु ग्राम स्वराज आंदोलन राजनीति में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं ला सका। भूदान के शुरू होकर ग्रामदान और ग्राम स्वराज्य तक पहुंचने में 20 वर्ष लगे, और तब आज भी यह प्रभावहीन है। सच्चाई यह थी कि विनोबा जी ने गांधी जी को देश का नेता माना। नेहरू को भी नेता माना। इंदिरा जी को माना। संजय इस परंपरा को बनाए रखेगा उन्हेंं इस बात का भी उन्हें विश्वास था। मगर कभी भी उन्हें यह ख्याल नहीं आया कि देश का भविष्य जयप्रकाश जी के हाथों में सुरक्षित रह सकता है। वे सिर्फ इंदिरा जी को ही आशीर्वाद देते थे। मात्र उन्हीं के शुभ हित की कामना करने में विश्वास करते थे। सर्वोदय के दौर में ही जेपी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भौतिक सुख को आराध्य मान लेना या भौतिक साधनों की एक अतृप्त बुभुक्षा पर आधारित जीवन दृष्टि को प्रोत्साहन देना गलत है।

मार्क्सवाद को जेपी ने 1952 में नकार दिया था पर पूर्णता: गांधीवादी वह 1952 के पश्चात बने। गांधीवादी जीवन दर्शन के आधार पर उन्होंने एक राजनीतिक एवं सामाजिक व्यवस्था का खाका देश को दिया। किंतु 1969 तक वह पूर्णता समझ गए कि अपने सपनों के समाज के निर्माण के लिए जीवन के हर क्षेत्र में क्रांति लानी होगी और तभी उन्होंने एक लेख में लिखा कि ‘गांधीवाद संपूर्ण क्रांति का दर्शन है। पर यह संपूर्ण क्रांति का’ विस्तारीकरण उन्होंने 5 साल बाद किया। ‘मित्रों,अब हमारा लक्ष्य संपूर्ण क्रांति है। लोकनायक ने 5 जून 1974 को गांधी मैदान पटना में विशाल जनसमूह को घोषणा की और देश की और देश की ठहरी हुई राजनीति समकालीन इतिहास के अत्यंत विस्फोटक दौर की ओर बढ चली।

 “संपूर्ण क्रांति अब नारा है

भावी इतिहास हमारा है।“

सामाजिक विषमता के खिलाफ,रंगभेद के विरुद्ध,साम्राज्यवाद के विरुद्ध,आर्थिक विषमता को मिटाने के लिए,

संगठन और सत्ता के दबाव से व्यक्ति और छोटी इकाइयों की आजादी के लिए एवंहथियार एवं हिंसा से मुक्ति के लिए

उपरोक्त सात क्रांतियां इस युग के संघर्ष की पहचान बनी।जेपी ने 5 जून 1975 को गांधी मैदान पटना में विशाल जनसमूह को संबोधित किया। और कहा यह क्रांति है मित्रों और संपूर्ण क्रांति है। यह कोई विधानसभा विघटन का ही आंदोलन नहीं है। वह तो एक मंजिल है जो रास्ते में है। दूर जाना है, दूर जाना है। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में अभी ना जाने कितने मील इस देश की जनता को जाना है, उस स्वराज की प्राप्ति करने के लिए जिसके लिए देश के हजारों लाखों जवानों ने कुर्बानियां की है। यह संघर्ष केवल सीमित उद्देश्यों के लिए नहीं हो रहा है। इसके उद्देश्य तो बहुत दूरगामी है। भारतीय लोकतंत्र को वास्तविक तथा सुदृढ़ बनाना, जनता का सच्चा राज्य कायम करना,समाज से अन्याय, शोषण आदि का अंत करना ,एक नैतिक सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक क्रांति करना और अंततोगत्वा नया भारत बनाना है। मित्रों जैसा आरंभ में कह चुका हूं यह संपूर्ण क्रांति है।

 यहीं उन्हें लोकनायक की उपाधि दी गई। फिर तो अलग-अलग स्तरों पर आंदोलन चलता रहा इसके कुछ दिनों बाद ही दिल्ली की रामलीला मैदान में उनका ऐतिहासिक भाषण हुआ। उनके इस भाषण के कुछ ही समय बाद इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया । 2 साल बाद लोकनायक के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के चलते देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। लेकिन जयप्रकाश नारायण का कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना संपूर्ण क्रांति के समय में था ।

सत्तासीन पार्टी को तुमने गिराया और मेरी पार्टी को चुना तो भ्रष्टाचार खत्म होगा और तुम्हारा कल्याण होगा -यह कहने को मैं नहीं आया ऐसा कहने वाले तुम्हें फसाते हैं सत्ता मिलने के बाद हमारे लोग जो सत्ता में है उससे भी अधिक भ्रष्ट हो सकते हैं ।मैं अपनी गारंटी भी नहीं दे सकता मैं कभी सत्ता में नहीं हूंगा तो भी इसकी गारंटी नहीं है इस देश में साक्षात परमेश्वर भी सत्ता में आया तो उसकी भी गारंटी नहीं है। इस देश में साक्षात परमेश्वर पी आया तो उसकी भी गारंटी नहीं है वह भी भ्रष्ट होगा क्यों? क्योंकि आप लोग गाफिल हैं ।आंखें खुली रख कर सो रहे हैं आप वोट देते हो सोचते हो अबकी बार सरकार कुछ करेगी लेकिन सरकार के ऊपर तुम्हारा दबाव नहीं। निर्वाचित प्रतिनिधियों पर आपकी निगरानी नहीं है। उनको आप का डर नहीं है ।फिर भी भ्रष्ट नहीं होंगे, तो क्या होंगे? सत्तासीन लोगों को अंकुश चाहिए ।फिर लगाम चाहिए। लगाम का छोरा के हाथ में होना चाहिए और लगाम को उचित अवसर पर खींचना चाहिए।अंकुश लगाना चाहिए।तब मंत्री ठीक काम करेंगे। तब आप का कुछ भला होगा। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण होगा।इसलिए शुरुआत आप से होनी चाहिए इसके बाद हमेशा जागते रहना पड़ेगा। स्वयं का संगठन बनाकर सरकारी मंत्रियों और अधिकारियों पर दबाव रखना होगा। गलत व्यवहार हुआ तो लगाम खींचिए ।निर्वाचित प्रतिनिधियों को फिर से वापस बुलाने का अधिकार भी प्राप्त होगा। यह अधिकार आसानी से आपको नहीं मिलेगा। उसके लिए आंदोलन करना होगा। शक्ति बनानी होगी। आप सब जब संगठित होते हैं ,तो शक्ति बनती है। आप जब इस प्रकार के पहरेदारी करेंगे ,तो सत्तासीन लोग नम्र होंगें। वे लोग राजा महाराजा नहीं है, आपके ही सेवक हैं। यह हमारा आंदोलन चुनाव के बाद खत्म नहीं होगा। एक पक्ष के बाद दूसरा पक्ष सत्ता में आया, तो आंदोलन चलाकर क्या होगा, ऐसा नहीं सोचना चाहिए। यह आंदोलन कब खत्म होगा? साल भर में? 5 साल में ?10 साल में? 50 साल में? मित्रों, नहीं! आपका यह आंदोलन आपके जीवन काल में समाप्त नहीं होगा। यह तो आपके बच्चों के जीवन काल में, उनके नाती पोते और उसके बाद भी चलते रहना चाहिए। इसका अंत नहीं। यह निरंतर चलेगा तो कुछ ठीक होगा ।तभी आप के बाद के लोग दो वक्त का खाना खा पाएंगे, देह पर कपड़ा पहनेंगे। मैं जो कह रहा हूं, उस पर अच्छी तरह से सोचिए ,गाफिल मत रहिए…

 जयप्रकाश की ताकत वस्तुतः जनशक्ति थी, जिसका संपूर्ण उपयोग वह राष्ट्र निर्माण के लिए करना चाहते थे। यद्यपि उपरोक्त संदर्भ को देखते हुए कहा जा सकता है कि राष्ट्र निर्माण का कार्य अनवरत चलना चाहिए। बस इसमें समस्त देशवासियों की एकजुटता दिखाते हुए निस्वार्थ भाव से सक्रिय योगदान करना चाहिए। तभी लोकनायक जयप्रकाश जी ने शोषण रहित एक आदर्श समाज के निर्माण का जो स्वप्नन देखा। वह पूरा हो सकेगा।

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