मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

वे हिंदू बनकर रह जाते हैं, मनुष्य के रूप में नहीं सोच-समझ पाते

प्रणव प्रियदर्शी सह सम्पादक नवभारत टाइम्स

बचपन में या कच्ची उमर में किसी बड़े विचार, बड़े संगठन या बड़ी लड़ाई का हिस्सा बनने का एक फायदा या नुकसान यह होता है कि आपकी मानसिक, वैचारिक संरचना में ऐसे ठोस बदलाव आ जाते हैं जो यह तय करते हैं कि आगे के दौर में सामने आने वाले तथ्यों को आप किस तरह से ग्रहण करेंगे. जाहिर है जिस तथ्य को आप जिस तरह से ग्रहण करते हैं, उसका आपके सोच और व्यवहार पर वैसा ही असर होता है।

आज के दौर में यह प्रतिक्रिया अक्सर देखने को मिलती है जिसमें खुद को पढ़ा लिखा समझने वाले लोग इस बात पर झुंझलाते नजर आते हैं कि ‘भक्तों’ को कुछ समझाना बेकार है। उनकी शिकायत रहती है कि वे पढ़ते-लिखते नहीं हैं और अपनी तरफ से कुछ बताओ तो भी तथ्य सुनने समझने को तैयार नहीं होते।

पूर्वाग्रह और हठधर्मिता के आरोपों पर बात करना मुश्किल इसलिए है क्योंकि ऐसा आरोप दोनों पक्षों पर लगता है। तथ्यों की अनदेखी का आरोप भी दोनों तरफ से आते हैं। ऐसे में एक पक्ष को आप ‘भक्त’ कह दें दूसरा पक्ष आपको ‘सिकुलर’ वगैरह कह दे तो गालियों के आदान प्रदान से उपजे क्षणिक सुकून के अलावा कुछ हासिल नहीं होता। सो, इसे छोड़कर यह देखने की कोशिश की जाए कि किसी भी वैचारिक पक्ष में हो, आखिर मनुष्य के इस गति को प्राप्त होने की प्रक्रिया क्या होती है।

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