राम भगवान नही पुरुषो में उत्तम मर्यादापुरषोत्तम थे
राज प्रिया रानी
रामनवमी के पावन अवसर पर संपूर्ण भारत में विशेष कर हिंदू समाज वर्ग में उत्साहपूर्ण, सौहार्दपूर्ण , गौरवपूर्ण माहौल होता है। धर्म की बात करें तो रामनवमी मनाने की कई प्रचलित कथाएं एवम तथ्य हमारे ग्रंथों में उपलब्ध हैं।श्री राम के हाथों रावण वध यानी बुराई पर अच्छाई की विजय यानी नाकरात्मकता पर साकारत्मकता की जीत। वहीं मानक तथ्यों के अनुसार यह भी मान्यता है की दुर्गा ने नौ रात्रि और दस दिन के युद्ध के उपरांत महिषासुर पर विजय प्राप्त की थी यानी असत्य पर सत्य की जीत के रूप मे दशहरा मनाया जाता है।
श्री राम सुखों का समझौता कर न्याय और सत्य के मार्ग को चुनते हुए अपने गुणों , कर्मों ,स्वभाव के कारण मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। सत्य, दया,करुणा , धर्म,और मर्यादा के मार्ग पर चलते हुए राजा की कुर्सी संभाला । आज भी अगर श्री राम की बात होती है तो उनकी संस्कृति सदाचारी की बात होती है। यह भी कहना गलत नहीं होगा की आज हमारे समाज को भगवान श्री राम नहीं बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम की आवस्यकता है जिन्होंने अपनी तपस्या, त्याग , एवं सदाचारी दृष्टिकोण के सहारे तंत्र को अपनाया । आज के युग को मर्यादा पुरुषोत्तम की आवश्यकता संपूर्ण जीवन को प्रभावित करने के उद्देश्य से भी जरूरी है ताकि घृणित एवं निकृष्ट मानसिकता वाले स्माज को बदल सकने में समर्थ हो सके।किसी पुरुषोत्तम को भगवान हम अपने स्वार्थ सिद्धि की वजह से भी मान लेते हैं इसका एक कारण यह भी है की इस अंधविश्वासी पहलू को हवा देकर आर्थिक व्यवस्था को अपने अनुसार ढाल सकने में समर्थ हो सकें।अपनी झोली भरने के उद्देश्य से जाति का बंटवारा किया । विभिन्न त्योहारों, पूजा व्यवस्थाओं,नियमों में अलग अलग प्रतिनिधि को स्थापित किया गया चुकी भक्ति का सिर्फ एक ही मतलब है ईश्वर को थे दिल से आराधना जिसे धर्म के ठेकेदार धर्म के नाम पर भावनाओं को बडगला कर, विश्वास को हथियाकर, मानसिकता को गुलाम बना कर अपना उल्लू सीधा करने में कहीं पीछे नहीं हैं। जिसे भोले भाले लोग समझ नहीं पाते। आज का समाज वर्ग, जाति,धर्म के कई टुकड़े कर चुका है। इंसान अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए ऐसी दुकानदारी इसलिए चला रहा है ताकि अपना सिक्का चला सके। धर्म और भक्ति दोनों अलग अलग कोण है। भक्ति ईश्वर की आराधना में निहित है और धर्म मनुष्यों की बनाई हुई सोच की उपज। किसी भी पुरुषोत्तम को भगवान मान लेना हमारी निजी सोच है जो हमारी उत्कृष्टता,कर्मठता को कमजोर बना देता है। हर पुरुष के अंदर पुरुषोत्तम बनने की प्रवृति निहित है अगर वह चाह ले तो। हम भगवान मान कर खुद को सिर्फ मनुष्य मान कर अपनी सोच को नकारात्मकता में बदल लेते हैं।अगर हम यह सोच लें की हमारा समाज उनके सुझाए मर्यादित पथ पर चल सकने में सक्षम है तो यह दूर नहीं की हमारा समाज भगवान मानने के बजाय पथ प्रदर्शक मानने लगेगा। और बहुत हद तक युवा वर्ग नाकारात्मक विचारधारा,घृणित मानसिकता को सकारात्मकता को धारणकरने लगेगा । इस तरह काफी हद तक समाज की नैतिकता को सुधार सकने में सक्षम हो पाएंगे।
पुरुषोत्तम राम हमारी आत्मा में बसते हैं । पुरुषों मेंसर्वोत्तम श्री राम देवदूत बन कर इस संसार में प्रतिनिधत्व किए और मृत्य लोक को स्वीकारें। फिर हम श्री राम को भगवान मान कर मनुष्यों से अलग कैसे कर सकते हैं। उनकी संस्कृति, संस्कार, त्याग भाव , राज धर्म , समर्पण एक आम व्यक्ति क्यों नहीं स्वीकार सकता। पुरुषोत्तम श्री राम विवेक शक्ति की अद्भुत प्रतिमूर्ति थे। आज समाज के युवा वर्ग अगर उनके आदर्शों को स्वीकारते हैं तो उन्हें अपना आदर्श भी मानते हैं। परंतु कर्तव्यों को निभाना हर रिश्ते की माला को बखूबी निभाना इसमें उनके संस्कार ,सहनशीलता,भाव भंगिमा स्वार्थ नीति को अपनाने लगते हैं। श्री राम को भगवान समझ उनकी प्रतिमा को एक तरफ कर खुद को उनके आदर्शों से भिन्न कर लेते हैं। कर्तव्यों से मनुष्य विमुख हो जाता है और ईश्वरीय शक्ति समझ कर धर्म की मध्ययस्तता करने लगते हैं। जो हमारे संस्कारों को तोड़ तोड़ कर रख देता है। धर्मों की बात कर मनुष्य भक्ति से कोसों दूर हो जाता है। हमारा देश दिग्गजों , महानायकों ,महाऋषियों, महामानवों से समृद्ध भूमि है। लेकिन हम उन्हे भगवान समझ स्वयं को भिन्न कर लेते हैं जो गलत है।