प्रभात कुमार धवन
त्रिदेवों में ब्रह्मा, विष्णु और शंकर की गणना की जाती है। एक ही परात्पर महाविष्णु जो परमविशुद्ध, सच्चिदानन्दधन, परब्रह्म परमात्मा है। इन्हीं को रजोगुण की प्रधानता से ‘ब्रह्मा’ सतोगुण की प्रधानता से ‘विष्णु’ एवं तमोगुण की प्रधानता से ‘शंकर’ कहा जाता है। ‘शंकर’ ब्रह्मा और विष्णु की अपेक्षा कहीं ज्यादा लोकप्रिय है। इसका कारण शंकर जी का बहुआयामी व्यक्तित्व ही हो सकता है। इनके व्यक्तित्व में परस्पर विरोधी गुणों का समायोजन है। इनका विचित्र स्वभाव एवं वस्त्राभूषण है। शिव पुराण में भगवान शंकर से ही विष्णु की उत्पत्ति तथा विष्णु से ब्रह्मा की उत्पत्ति बतायी गयी है। ये त्रिदेव तीन दिखते हुए भी एक है। इन्हें उत्तम, मध्यम या अधम कहने वाला पाप का अधिकारी होता है। उसे नरक की प्राप्ति होती है।
स्कन्द पुराण में तो इस बात की विस्तृत चर्चा की गयी है। प्राचीन काल में नैमिषारण्य निवासी मुनियों को भी यह सन्देह हुआ था कि इन तीनों देवताओं में कौन अधिक श्रेष्ठ है। तब वे ब्रह्मालोक में गये। उस समय ब्रह्मा जी ने विष्णु और शंकर को अपने से श्रेष्ठ बताते हुए कहा- विष्णु और शंकर सदैव मुझ पर प्रसन्न रहे। भगवान विष्णु और शंकर की श्रेष्ठता को निश्चय करके सभी मुनिगण क्षीरसागर गये। वहां भगवान विष्णु ने कहा- ब्रह्मा और महादेव शंकर को मैं प्रणाम करता हूं। वे दोनों ही मेरे लिए कल्याणकारी है। वहीं कैलाश पर्वत पर मुनियों ने उमा से भगवान शंकर को कहते हुए सुना- ‘देवी! विष्णु और ब्रह्मा दोनों की प्रसन्नता के लिये मैं सदा तपस्या करता रहता हूं।‘
इस तरह इन तीन देवों की शक्ति एक ही है। इन तीनों का पूजक एक ही विशिष्ट शक्ति-परम विशुद्ध सच्चिदानन्दधन, परब्रह्मा परमात्मा का पूजक है। जिस तरह असंख्य छोटे-छोटे जलप्रवाह एक बड़े जलाशय में गिरते हैं और एक कहे जाते है। उसी प्रकार त्रिदेवों का पूजन अथवा अन्य सभी देवी देवताओं के पूजन का फल एक ही होता है। कल्पभेद से ही उसके नाम और रूप अथवा कार्य में अन्तर प
श्रीमद् भागवत में तो परब्रह्मा परमात्मा के 24 अवतारों का वर्णन आया है। उपनिषद में शंकर को आदिदेव माना गया है तथा शंकर से ही समस्त देवों की उत्पत्ति बतायी गयी है। वेदों में शंकर परमात्मा स्वरूप जगत के आदिकरण, सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, पालन और प्रलय करने वाले बताये गये है। कई प्राचीन ग्रन्थों में शंकर के साथ ही ब्रह्मा और विष्णु को पुरूषोत्तम कहा गया है। भगवान शंकर को आशुतोष कहा गया है। एक धतूरे का पुष्प अर्पित कर इनसे सारी मनोकामना पुरी की जा सकती है। इन्हें ही शिव, त्रिपुरारी, गोपेश्वर, महादेव, महेश्वर, बाघम्बरधारी, भोलेनाथ, भोलेभण्डारी, अर्धनारीश्वर, त्रयम्बक, रूद्र, पशुपति, नटराज, नीलकंठ, योगेश्वर, शर्व, उग्र, अशानि, ईशान, भव आदि नामों से जाना जाता है।ड़ता है।
शंकर के अर्धनारीश्वर रूप के बारे में शिवपुराण में एक कथा है। ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना कर दी और वर्षों बाद भी जब प्रजा की वृद्धि नहीं हो सकी, तब उन्होंने मैथुनी सृष्टि की रचना का विचार किया और ब्रह्मा पराशक्ति से युक्त भगवान शंकर की अराधना व तपस्या करने लगे। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर अपने अनिर्वचनीय अंश से किसी अद्भुत रूप में अवशिष्ट हो आधा पुरूष का तथा आधा नारी का शरीर धारण किये, अर्धनारीश्वर रूप में प्रकट हुए।
परात्पर ब्रह्म स्वरूप शंकर की महिमा का बखान वेद, पुराण के साथ ही अन्य सभी धार्मिक, आध्यात्मिक ग्रन्थों में गायी गयी है। इनकी अनेक लीलाओं का वर्णन इन ग्रन्थों में पढ़ने को मिलता है। शंकर संहार के देवता माने जाते है तो दूसरी ओर उनसे बढ़कर कोई दाता नहीं। भस्मासुर की कथा सर्वविदित है। रावण की लंका शंकर की ही देन थी। इनके पराक्रम को कौन नहीं जानता । परशुराम को गुरु रूप में शंकर ने ही धनुर्वेद सिखाये थे। अर्जुन को विजय श्री भगवान शंकर द्वारा प्राप्त पाशुपतास्त्र से ही सम्भव हो सकी थी। कामदेव को भस्म कर शंकर ने अपना योगेश्वर नाम सार्थक किया। तुलसी दास और कालीदास जैसे महान रचनाकारों ने शंकर की वन्दना कर अपना देवऋण चुकाया। शंकर की कृपा से ही अपनी कृतियों का निर्माण भी किया। राम चरित मानस को शंकर का पूर्ण समर्थन मिला। शंकर ने पार्वती को अपनी पत्नी होने का गौरव दिया। दक्ष के यहां सती होने पर उसे ले शंकर ने अद्भुत नृत्य किया और नटराज कहलाये। इनसे ही संगीत का निर्माण हुआ। इन्हें कला का प्रथम देवता माना जा
भगवान शंकर का विरोध करने वाला सभी देवताओं को कुपित करता है और शंकर को प्रसन्न करने वाला सारे सुखों को प्राप्त करता हुआ अंत में दिव्य लोक को प्राप्त करता है। इन सारे सुखों की प्राप्ति इसी दिव्य शक्ति का प्रसाद है। ‘ऊँ नमः शिवाय: ‘ के सूत्र से प्रसन्न होने वाले भगवान शिव वास्तव में भोले भण्डारी है।ता है।