दयानंद पांडेय
बीते सवा पांच सालों से सत्ता से दूर होने की हताशा में अखिलेश यादव ने अपनी अभद्रता , बदमिजाजी और अहंकार का जो बांस का खूंटा गाड़ा है , उस बांस के खूंटे पर दौड़ कर बैठने के उन के शौक़ ने उन्हें सांसत में डाल दिया है। यक़ीन मानिए कि जल्दी ही भ्रष्टाचार के भंवर में डूबते-उतराते अखिलेश यादव और उन के क़रीबियों पर ई डी , इनकम टैक्स और सी बी आई आदि के छापे बस पड़ना ही चाहते हैं। बस उत्तर प्रदेश का विधान सभा सत्र खत्म होने दीजिए। जिस छापे और कार्रवाई को मुलायम सिंह अपने तिकड़म और ओढ़ी हुई विनम्रता के छाते से कुछ बरसों से रोके हुए थे , वह छाता अब टूट गया है। टूट गया है , विधानसभा में अखिलेश के अभद्र और असंसदीय आचरण से। उत्तर प्रदेश के उप मुख्य मंत्री केशव मौर्य के साथ विधान सभा में तू-तकार की भाषा और दत्त-धत्त से जो संसदीय गरिमा घायल हुई है , वह तो है ही , भाजपा हाईकमान भी ख़ुद को घायल महसूस कर रहा है। केशव मौर्य को बहुत लोग पसंद नहीं करते। मैं भी नहीं पसंद करता। पर विधानसभा में अखिलेश यादव जिस तरह तू-तकार करते हुए केशव मौर्य के बाप तक पहुंच गए , वह बहुत ही गंभीर मामला है। बहुत ही आपत्तिजनक। वह समय दूर नहीं जब इसी उत्तर प्रदेश विधान सभा में कोई अखिलेश यादव को टोटी यादव या टोटी , टाइल नाम से संबोधित करेगा। और विधानसभा अध्यक्ष को इसे रिकार्ड से हटाने के लिए कहना पड़ेगा। सपा राज में यादववाद की दुर्गंध और गुंडा राज भी लोग कहां भूले हैं भला। हर थानेदार यादव , हर ठेकेदार यादव , हर प्राइज पोस्टिंग पर यादव अभी भी उत्तर प्रदेश की फिजा भूली नहीं है , टोटी यादव ! उत्तर प्रदेश विधान सभा ने सपाई गुंडों की गुंडई , मार-पीट और बहुत सारे अलोकतांत्रिक कार्य-व्यवहार देखे हैं। बारंबार देखे हैं। बसपा की मायावती ने चढ़ गुंडों की छाती पर , मुहर लगेगी हाथी पर , नारा अनायास नहीं दिया था। 2 जून , 1995 को लखनऊ में हुआ गेस्ट हाऊस कांड वस्तुतः मायावती की हत्या के लिए ही सपा ने अंजाम दिया था। 1997 में भी कल्याण सिंह के विश्वास मत के समय उत्तर प्रदेश विधान सभा में हुई भयानक हिंसा वस्तुतः फिर मायावती की पिटाई के लिए ही सपाइयों ने की थी। पर सर्वदा सतर्क रहने वाली मायावती समय रहते बच्चों की तरह बकैया-बकैया विधान सभा से भाग गई थीं। उस बार कई सपा विधायक कमर में चेन बांध कर आए थे। इस के पहले भी उत्तर प्रदेश विधान सभा में कई बार अप्रिय स्थितियां आती रही हैं। पर इस तरह कभी कोई पूर्व मुख्य मंत्री और नेता प्रतिपक्ष कभी भी किसी से इस तरह तू-तकार करते हुए किसी के बाप तक नहीं पहुंचा था। जैसे अभी अखिलेश यादव ने उप मुख्य मंत्री केशव मौर्य के साथ उत्तर प्रदेश विधान सभा में किया। यह और ऐसा तो अभी तक कभी नहीं हुआ था।
बांस के खूंटे पर सर्वदा धधा कर बैठने की अखिलेश की अदा जब उत्तर प्रदेश विधान सभा में दिखी तो मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ। क्यों कि मैं तो शुरु ही से मानता हूं कि अखिलेश यादव और राहुल गांधी दोनों ही राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं। दोनों ही चांदी का चम्मच मुंह ले कर पैदा हुए हैं। राहुल गांधी की पैंट उतर चुकी है , अखिलेश यादव के पायजामे में उन का ही बांस का खूंटा निरंतर घाव पर घाव दे रहा है। रायबरेली और अमेठी में कभी भी सोनिया और राहुल के ख़िलाफ़ किसी भी चुनाव में उम्मीदवार न उतारने वाली सपा ने कांग्रेस से कपिल सिब्बल को आयात किया है तो कांग्रेस का दिल दुखाने के लिए नहीं किया है। बल्कि आज़म ख़ान सपा से किसी तरह न टूटें , इस की रोकथाम के लिए कपिल सिब्बल का ईगो मसाज़ किया है , अखिलेश यादव ने। गौरतलब है कि 27 महीने से जेल में सड़ रहे आज़म ख़ान को सुप्रीम कोर्ट से ज़मानत कपिल सिब्बल ने ही दिलाई है। तो आज़म ख़ान को सपा के खूंटे से बांधे रखने के लिए ही कपिल सिब्बल को अखिलेश राज्य सभा भेजने का कार्ड खेल गए हैं। फिर यह कपिल सिब्बल कार्ड खेलने का दिमाग अखिलेश यादव का नहीं है , रामगोपाल यादव का है। रामगोपाल यादव की सपा में उपस्थिति अब शकुनि की तरह है। और अखिलेश यादव को मुलायम पूरी तरह दुर्योधन बना चुके हैं।
ख़ैर , अब दिक़्क़त यह है कि रामगोपाल यादव या मुलायम सिंह यादव अखिलेश यादव को राजनीतिक सलाह दे सकते हैं। आदेश भी दे सकते हैं। पर विधान सभा के सदन में कब , क्या और कैसे रिएक्ट करना है , भी बता सकते हैं। लेकिन कुछ चीज़ें , कुछ तात्कालिक वाद-विवाद-संवाद तो तुरंत ही होते हैं। इस का सब से सफल और परिणामकारी उपाय तो यह होता है कि कम बोला जाए। चुप रहा जाए। अटल बिहारी वाजपेयी तो कहते थे चुप रहना भी एक कला है। यह वाकया तब का है जब राम जेठमलानी लखनऊ से संसदीय चुनाव लड़ने लखनऊ आए। कभी अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिमंडल में क़ानून मंत्री रहे जेठमलानी लखनऊ से कांग्रेस के टिकट पर अटल जी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहे थे। एक समय था कि बोफ़ोर्स काण्ड के समय जेठमलानी रोज राजीव गांधी से 5 सवाल पूछते थे। उसी बोफ़ोर्स की तर्ज पर जेठमलानी अटल जी से लखनऊ में रोज 5 सवाल पूछने लगे। कुछ समय बाद अटल जी जब लखनऊ आए तो पत्रकारों ने उन से जेठमलानी द्वारा पूछे गए सवालों के बाबत पूछा तो अटल जी ने एक लंबा पॉज लिया फिर अंगुली घुमाते हुए बोले , मेरे मित्र जेठमलानी को नहीं मालूम कि चुप रहना भी एक कला है। दूसरे दिन से जेठमलानी के सवाल समाप्त हो गए।
बहुत बोलने का एक बड़ा उदाहरण लालू प्रसाद यादव हैं। लालू की दुर्गति सब के सामने है। जेल पर जेल। ज़मानत पर ज़मानत। सिलसिला है कि ख़त्म ही नहीं होता। सपा नेता आज़म ख़ान भी बहुत बोलने का ही शिकार हुए। 27 महीने बाद जेल से छूटने के बाद लगता है कि आज़म ख़ान ने अपने बोलने की बींमारी की कोई औषधि प्राप्त कर ली है। पहले सलीम जावेद के संवाद की तरह विषैले संवादों की झड़ी लगाए रहते थे। अब जेल से आने के बाद जैसे आज़म ख़ान की जुबान को लकवा मार गया है। विधान सभा में भी नहीं दिख रहे। जो भी हो लगता है , अखिलेश यादव अब लालू यादव और आज़म ख़ान की राह चल पड़े हैं। मुलायम और अखिलेश यादव के पूरे परिवार पर आय से अधिक अरबों रुपए के संपत्ति की जांच बरास्ता सी बी आई सुप्रीम कोर्ट में बरसों से लंबित है। यह बात सार्वजनिक है। अकेले लखनऊ में ही विक्रमादित्य मार्ग के 90 प्रतिशत बंगले मुलायम-अखिलेश परिवार के नाम हैं। राज्यपाल निवास राज भवन के सामने अरबों रुपए का विशाल बंगला डिंपल यादव के नाम है। जिस में एक अंतरराष्ट्रीय बैंक चल रहा है। किराए पर। सैफई , दिल्ली और मुंबई जैसी जगहों पर भी मुलायम-अखिलेश परिवार की अरबों की संपत्तियां बताई जाती हैं। क्या तो दूध बेच कर यह संपत्तियां बटोरी हैं। इत्र के नक़दी की दुर्गंध अलग है।
अभी बीते विधान सभा चुनावों में इत्र की दुर्गंध में सने अरबों रुपए की नक़दी कन्नौज और कानपुर में सामने आई ही थी। अभी और आएगी। तब भी अखिलेश यादव इतना बोले कि सपा के एक विधान परिषद सदस्य दूसरे जैन भी चपेटे में आ गए। अब फिर विधान सभा और विधान सभा से बाहर अखिलेश बिना किसी तत्थ्य और तर्क के चपड़-चपड़ और तू-तकार की भाषा के लिए कुख्यात हो चले हैं। चुनाव के दौरान भी उन की अभद्र भाषा चर्चा के केंद्र में थी। ज़िला स्तर के पत्रकारों को अपने सामने ही पिटवा देने में निपुण अखिलेश ने बीते चुनाव में ऐ पुलिस, ऐ पुलिस ! की जुगाली की थी। बहुत से नेताओं समेत योगी तक के ख़िलाफ़ बिलो द बेल्ट टिप्पणियां करने के तमाम रिकार्ड बनाए थे अखिलेश यादव ने। जानने वाले जानते हैं कि अहंकार और अभद्रता का संसदीय राजनीति में कभी कोई स्थान नहीं रहा है।
लेकिन अखिलेश यादव चूंकि राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं। अपने यादवी लंठई और अहंकार में गिरफ़्तार हो कर जद-बद बकते हुए दत्त-धत्त करने के अभ्यस्त हो चले हैं। इस करतब में वह यह भी भूल गए हैं कि जिन कामों को वह अपनी उपलब्धियों के रुप में बखान कर रहे हैं , उन में ज़्यादातर कामों में भ्रष्टाचार की जांच चल रही है। इन कामों से जुड़े कई इंजीनियर , अफ़सर दोषी पा लिए गए हैं। नौकरी से बाहर किए जा चुके हैं। जेल भेजे जा चुके हैं। विभिन्न अदालतों में मुक़दमे चल रहे हैं। तो उन मामलों की आंच अखिलेश यादव तक आने में क्या कई युग लगेंगे ? कब भ्रष्टाचार की वह आंच आ जाए अखिलेश यादव तक और इस आंच में उन का यादवी अहंकार पिघल कर क़ानूनी फंदों में उलझने लगे , यह भला वह नहीं जानते तो कौन जानता है। और जब क़ानूनी फंदा कसेगा तो क्या धत्त-दत्त और तू-तकार करने से वह फंदा टूट जाएगा ? या कि इस क़ानूनी फंदे से कपिल सिब्बल जैसे बदनाम वकील बचा ले जाएंगे ?
याद कीजिए जब लालू यादव इसी तरह अभद्रता और फू-फा करते हुए क़ानूनी फंदों में लिपटते गए थे तो बड़ी उम्मीद से लालू ने राम जेठमलानी को अपनी पार्टी की तरफ से राज्य सभा में सदस्य बनवाया था। तो क्या जेठमलानी ने जेल जाने से लालू यादव को बचा लिया था ? अखिलेश यादव को जान लेना चाहिए कि आज़म ख़ान को 27 महीने की जेल के बाद सुप्रीम कोर्ट से ज़मानत दिलाने में सफल कपिल सिब्बल अब क़ानून की दुनिया में दगा हुआ कारतूस हैं। कपिल सिब्बल के तमाम फ़ेवरिट जस्टिस सुप्रीम कोर्ट से विदा हो चुके हैं। कुछ विदा होने की कतार में हैं। सेक्यूलरिज्म की कटार की धार अब कुंद हो चली है। कुल मिला कर यह कि सुप्रीम कोर्ट में कपिल सिब्बल की दलाली के दिन का सूरज अब डूब रहा है।
लेकिन अखिलेश यादव के सामने अभी राजनीतिक जीवन नहीं , न सही , पर अपना लंबा जीवन शेष है। तो लालू और आज़म ख़ान की तरह पकर-पकर और विषैले बोल , बोल कर क़ैदी जीवन जेल में बिताना है या अपने पिता मुलायम की तरह , अपनी बुआ मायावती की तरह चुप रह कर जेल के बाहर गोल्फ़ खेलते हुए , शाम की ‘ महफ़िल ‘ सजाते रहना है। यह अखिलेश यादव को ही सोचना है। क्यों कि उन के ढेर सारे आर्थिक घोटाले उन को जेल तक ले जाने की राह देख रहे हैं। एक आर्थिक सत्य यह है कि मायावती और अखिलेश यादव ने विकास के नाम पर जितने काम किए , सिर्फ़ अपनी तिजोरी भरने के लिए किए। मायावती के बनवाए विभिन्न दलित स्मारक , पार्क हों या यमुना एक्सप्रेस या नोएडा और ग्रेटर नोएडा का धुआंधार विस्तार , सारा कुछ मायावती ने अपनी तिजोरी भरने के लिए किया। सतीश मिश्रा जैसे निपुण वकील को सिर पर इसी लिए बिठा कर रखा है कि वह उन्हें जेल जाने से बचाए रहें। ठीक इसी तरह अखिलेश यादव ने भी ताज एक्सप्रेस वे से लगायत , जे पी सेंटर , गोमती रिवर फ्रंट , लोक भवन , सूचना भवन आदि काम अपनी तिजोरी भरने के लिए , इत्र में बहकने के लिए ही किए। लोक कल्याण के लिए नहीं।
इसी लिए केशव मौर्य ने कहा कि क्या सैफई की ज़मीन बेच कर यह सब अखिलेश यादव ने किया है ? केशव मौर्य को भी भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी मारने तो आता है पर संसदीय भाषा में कैसे किसी पर भरपूर प्रहार किया जाता है , वह नहीं जानते। केशव मौर्य को अटल , आडवाणी , अरुण जेटली , सुषमा स्वराज जैसे अपनी ही पार्टी के नेताओं की लोकसभा की पुरानी क्लिपिंग देख कर यह कला सीखनी चाहिए। कल्याण सिंह और योगी की वक्तृता से भी प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्हें देखना चाहिए कि कभी एक हाथ में माला , एक हाथ में भाला का उद्घोष करने वाले योगी आदित्यनाथ ने ख़ुद को कितना तो बदल लिया है। अब वह संसदीय वक्तृता में कितने तो परिपक्व और निपुण हो चुके हैं। कितनी सरलता और कितनी तैयारी से बहुत नरम हो कर मृदु हो कर अब अपनी बात कहते हैं।
लगता ही नहीं कि यह वही आदमी है जो कभी आज़मगढ़ की सभा में खड़ा हो कर एक हाथ में माला , एक हाथ में भाला का उद्घोष करता था। योगी के भाषण में अब शेर भी कोट होने लगे हैं। क्रोध और आग की जगह उदारता और जल का तत्व दिखता है योगी में। इस तत्व को पाने के लिए आदमी का निजी जीवन में ईमानदार होना भी बहुत ज़रुरी है। सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और शुचिता भी अनिवार्य तत्व है। तब जा कर यह नरमी , यह उदारता , यह गंगा जैसी कलकल मिलती है आदमी को। योगी अडिग तो होता ही है , अहंकार से भी दूर रहता है। मोह और लोभ से भी दूर होता है। केशव मौर्या को यह सब सीखना अभी शेष है। जिस दिन योगी के खिलाफ दुरभि-संधियां रचना छोड़ कर यह सब सीख जाएंगे , केशव मौर्य , तब कोई अखिलेश यादव उन से तू-तकार नहीं करेगा। उन के पिता तक पहुंचने की हिम्मत नहीं होगी किसी अखिलेश यादव की। बाक़ी अखिलेश यादव का क्या है , वह तो गुजरात के दो गधे भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह को कह चुके हैं।
आज देखा कि अखिलेश यादव लोहिया गान गा रहे थे। मैं जानता हूं कि अखिलेश यादव लोहिया का लो भी नहीं जानते। लोहिया और उन के विचारों को जानना तो बहुत दूर की कौड़ी है। लोहिया को तो अखिलेश के पिता मुलायम भी ठीक से नहीं जानते। लोहिया ग़ैर कांग्रेसवाद की राजनीतिक लड़ाई लड़ते थे। संचय के खिलाफ थे। पर मुलायम और अखिलेश बारंबार कांग्रेस शरणम गच्छामि हुए हैं। लोहिया नाम का निरंतर जाप करने वाले मुलायम , शिवपाल और अखिलेश तीनों ही लोहिया के संचय के ख़िलाफ़ होने की बात को लात मार करअरबों की संपत्ति के मालिक हैं। लोहिया के नाम पर यह तीनों ही गाली हैं। लोहिया की सप्तक्रांति का निरंतर माखौल उड़ाते हैं। पिता-पुत्र दोनों। लोहिया कहते थे कि राम,कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं। मुलायम और अखिलेश का राम,कृष्ण और शिव से क्या नाता है , सब लोग जानते हैं। जो भी हो अखिलेश और मुलायम के भ्रष्टाचार की कहानियां , लोहिया गान के पीछे छुपने वाली नहीं हैं। इस लिए भी कि भाजपा ने अखिलेश के रावण को तीर मारने के लिए शिवपाल के रुप में एक विभीषण भी पा लिया है। यह बात अब हर कोई जानता है।
क्या अखिलेश यादव इतना भी नहीं जानते ? या तभी जानेंगे जब कोई उन से भी कहेगा , ऐ अखिलेश , ऐ अखिलेश ! क्या तभी जानेंगे कि किसी का अपमान करना ऐसे भी होता है। बांस के खूंटे पर धधा कर ऐसे भी बैठा जाता है। जैसे अखिलेश यादव इन दिनों निरंतर बांस के खूंटे पर बैठने के अभ्यस्त हो चले हैं। बिना इस का परिणाम जाने। परिणाम मिलता भी ज़रुर होगा। पर ऐसे परिणाम भला बताता भी कौन है। अखिलेश यादव भी नहीं बताते। कभी नहीं बताएंगे। एक समय आएगा कि यह परिणाम सब को साफ़-साफ़ दिखेगा। क्यों कि यह ऐसा परिणाम है , इस परिणाम में मिला ऐसा घाव है जो बहुत दिनों तक छुपाए , छुपता नहीं है। जगजाहिर हो ही जाता है। जैसे लालू यादव का हो चुका है , अखिलेश यादव का भी होगा। टोटी यादव का धब्बा अभी धुला कहां है। धुल गया हो तो कोई बताए भी।