राज प्रिया रानी
आज साहित्य जगत का एक बेहद शर्मनाक पहलू उभर कर सामने आ रहा है जो स्वयं प्रकाशक, जिसके हांथ में साहित्यिक अस्मिता की रक्षा की डोर है, ही स्वार्थ के लालच में निकृष्टता धारण करते नजर आ रहे हैं। यह भी सौ प्रतिशत सत्य है कि इस विडंबना के घेरे में लेखक रचनाकार भी शामिल हैं जो अपनी रचनाओं को कीमत भाव पर तौलते दिख रहे हैं जो बेहद निंदनीय है। जैसी कीमत वैसी प्रति ।न ही प्रकाशक की नीयत को आंकने में समर्थ हैं न हीं हम आज के साहित्यकारों की लालसा पर लगाम लगा सकते हैं। यह अनुचित कार्य दोनों अपने अपने फायदे को ध्यान में रखते हुए करते है। किसी मतलबी फरेबी प्रकाशक के घेरे में तब आते हैं जब कोई नौसिखिया रचनाकार अपनी किताब छपवाने के सिलसिले में किसी भी कीमत पर राजी हो जाते हैं और प्रकाशक के किसी भी शर्तों की मान कर दुष्परिणाम को भुगतते हैं। अधजल गहरी छलकत जाए वाली बात आज के छिछोरे प्रकाशक और कम स्तर के रचनाकार पर वाकई फिट बैठता है। कुछ रचनाकार अपनी निचले स्तर की रचनाओं को नामी गिरामी पत्रिकाओं में छपवाने के लिए कोई भी कीमत देने को राजी हो जाते हैं और छप जाने पर स्वयं को महान साहित्यकार के दर्जे में आंकने लगते हैं नीयत से गिरे प्रकाशक इसका पूर्ण फायदा उठाते हैं ।
साहित्यकार का दर्जा श्रेष्ठ होता है लेकिन आज के दौर में साहित्य के नाम पर दुकान चल रही है कीमत अदा कर रचनाएं छपवाई जा रही है वह भी निचले स्तर की रचनाएं जिसकी समीक्षा करना तो दूर उस छापने से पूर्व एक नजर पढ़ना भी प्रकाशक के लिए बेमायने लगता है। संपादक और प्रकाशक के गैर जिम्मेदाराना हरकतों के कारण आज कोई भी टूटी फूटी रचनाएं छप जाती हैं जो पाठकों के नजरों से पत्र पत्रिकाओ की अहमियत गिर जाती हैं पाठक शिरे से नकार देते हैं। इस प्रकार घटिया नियत के प्रकाशक साहित्य के दर्जे को रौंद भी रहे हैं और पाठकों की विश्वसनीयता खो भी रहे हैं। लेखक जिस विश्वास के साथ कोई रचना कागज पर उतारता है वह यह चाहता है कि इसे लोगों तक उनके संदेश पहुंचे जिसे मतलबी प्रकाशक आडे हांथों लेकर गलत फायदा उठाते हैं।
साहित्यकार स्वयं भी इस गलत नीयत का विरोध कर सकते हैं अगर वह इस दोहरे चरित्र वाले प्रकाशकों से बचना चाहते हैं तो । इसका कड़ा विरोध ही साहित्य की अस्मिता की रक्षा कर सकता है । कदम उठाए लेकिन सोच समझकर।