आज़ाद भारत
माधुरी भट्ट
अंग्रेजों की ग़ुलामी से भारत आज़ाद हुआ।15 अगस्त1947 का दिन भारत के ही नहीं अपितु विश्व इतिहास में भी स्वर्ण अक्षरों में अंकित हुआ। इससे अधिक प्रसन्नता की बात और क्या हो सकती है लेकिन शायद भारत आज़ाद हुआ भारत की जनता आज़ाद नहीं हो पाई है।
यदि मुट्ठी भर लोगों को अलगकर दिया जाय तब असली भारत की तस्वीर देखी जाय तो हमें समझ आजाएगा कि हम अभी भी गुलामी की ज़ंजीरों में ही जकड़े हुए हैं।26जनवरी1950से हम गणतन्त्र देश के नागरिक अवश्य बन गए लेकिन अफ़सोस!हम गणतंत्र नागरिक के अधिकारों को समझने में विफल रहे।हमारे संविधान ने हमें बराबरी का हक़ दिया।देश के प्रथम नागरिक से लेकर साधारण नागरिक तक को वोट का अधिकार मिला ताकि हम ऐसी सरकार चुन सकें जो देश के हित को सर्वोपरि रख सके।सबके लिए एक क़ानून बना जहाँ सबको समान न्याय मिल सके,चाहे वह अपराधी, देश का प्रथम नागरिक हो या एक सामान्य जन, लेकिन वास्तविकता क्या है यह किसी से छिपी हुई नहीं है।
15 अगस्त 1947 से पहले अंग्रेजों की दमनात्मक नीति के तले जनता पिसती थी और आज…..?इस पश्न का जवाब पाठक को स्वयं ही मिल जाएगा।आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी आम जनता यह महसूस नहीं कर पाई है कि नेता चुनने का अधिकार आख़िर उसे क्यों मिला है? जब चुनने का अधिकार जनता को मिला है और जनता ने ही उसे उस विशेष पद पर आसीन किया है तब यह अधिकार भी तो उसका होना चाहिए कि पदासीन अमुक व्यक्ति उसके निर्देशानुसार कार्य करे, जो उसके हित में हो।
अफ़सोस! जनता तो पदासीन व्यक्ति की ग़ुलाम बनकर रह जाती है, मात्र इस धोखे में कि अब तो वह आज़ादी की खुली हवा में सांस ले रही है, उसे सर्वाधिकार प्राप्त हो गए हैं, जो एक आज़ाद देश के नागरिक के लिए होते हैं। उसी की ख़ून -पसीने की कमाई पर उसके चयनित नेता ऐशोआराम की ज़िंदगी जी रहे होते हैं ।उस भोली भाली जनता को यह एहसास भी नहीं हो पाता कि वह अपनी रोज़मर्रा की छोटी से छोटी चीज़ की खरीद पर भी उन नेताओं के ऐशोआराम का सामान जुटा रही है और वह स्वयं अभाव में जीने को मजबूर है।
सरकार दावे बड़े-बड़े करती है, कई तरह की जनहित योजनाएं चलाई जाती हैं,लेकिन क्या कभी बारीकी से ज़मीनी सतह पर उतर कर यह जानने की कोशिश करती है कि सही मायने में उसके अफसर दलाल उन योजनाओं को फ़लीभूत कर रहे हैं या सिर्फ़ अपनी तिजोरियां भर कर अपना भविष्य सुरक्षित करने पर लगे हैं।
सर्व शिक्षा अधिकार के तहत सरकारी स्कूलों में बच्चों को विकलांग या अपराधी बना कर रख दिया है।इन स्कूलों में क्या पढ़ाई हो रही है ,किसी से छिपी नहीं है। अधिकांश स्कूलों में बच्चों को खिचड़ी खिला कर खानापूर्ति कर घर भेज दिया जाता है।अब ये बच्चे न घर के रह जाते हैं और न घाट के,क्योंकि मुफ़्त में पेट भर जाने से इन्हें काम करने की ज़रूरत ही नहीं महसूस होती।बड़े होने पर ये बच्चे या तो अपराधी बन जाते हैं या सड़कों पर भीख माँगते फ़िरते हैं।समझ में नहीं आता ये ऊँची कुरसियों पर बैठे नेता-अफ़सर समाज को आगे ले
जा रहे हैं या नारकीय जीवन जीने के लिए विवश कर रहे हैं?क्या यही है प्रधानमंत्री जी का सबका साथ, सबका विकास?
सबके लिये शौचालय पर इतना ज़ोर दिया जा रहा है,करोड़ों रुपए ख़र्च किए जा रहे हैं,लेकिन सही मायने में कितने लोग लाभांवित हो पाए हैं,इसकी तस्वीर साफ़ हो जाती है जब उन लोगों के दर्द से दो-चार होना पड़ता है जो इस समस्या से जूझ रहे हैं और उनकी तऱफ से कोई सुनवाई नहीं हो पा रही है।
एक ओर उच्च पदस्थ नेता -अफ़सर बोतलों में बंद पानी पीकर भी संतुष्ट नहीं हैं ,दूसरी ओर ग़रीब-मजबूर जनता गन्दे नाले के पानी को छानकर पीने के लिए विवश है। इनसे साक्षात्कार करने पर गाँव छोड़ शहर आने की मजबूरी सुन कर अंग्रेज़ी हुकूमत के ए .सी. एमन के नेतृत्व में चम्पारण की नील की खेती बरबस मानस पटल पर घूम जाती है। आज भी गाँवों में जमींदार लोग ग़रीबों से सुबह 8बजे से लेकर शाम 6बजे तक भूखे पेट खेतों में काम करवाते हैं और मात्र कोई एक अनाज सीमित मात्रा में देकर उनका शोषण करते हैं। पेट की आग बुझाने के लिए इन ग़रीबों को अपना आशियाना छोड़ शहर में गली- कूचों की शरण लेनी पड़ती है। असमंजस में हूँ क्या हम आज़ाद हिंद के वासी कहलाने लायक हैं?