‘डॉ नीता चौबीसा
यथा ब्रह्माण्डे तथा पिंडे ‘का उदघोष करने वाले उपनिषद भी मानते है कि मनुष्य स्वभावतः पशु है ।इसिलए वैदिक वांग्मय में आह्वान किया गया- “मनुर्भव मनुर्भव!!”दरसल मनुष्य होना एक सम्भावना है,सम्भावना जो नवीन क्रांति का आगाज़ करती है।यह वह निर्णायक मोड़ है जहां से जीव पशुत्व की और भी जा सकता है और देवत्व की और भी।इसिलए मानव देह को दुर्लभ कहा गया।आदिदेव महादेव ‘शिव’-देवत्व के पूर्णत्व का वह प्रतीक रूप है जिसका नियंत्रण दोनो पर है-पशुत्व और देवत्व क्योंकि वह आदियोगी है।योग ही वह पथ है जिस पर चलकर स्वभावतः पशु हुआ जीव मनुष्यत्व से गुजरता हुआ देवत्व के पूर्णत्व को प्राप्त हो सकता है।पर इस हेतु सर्वप्रथम पशुता को समझना जरूरी है।यह बोध होते ही आरम्भ होता है तंत्र और योग का।तंत्र का एक अर्थ है स्व का स्व पर शासन अर्थात स्वानुशासन स्थापित करना जो परम सिद्धि का मार्ग है।स्वयं को अनुशासित किये बिना योग सम्भव नही क्योंकि योग का अर्थ है व्यष्टि से ऊपर उठ कर समष्टि की चेतना से जुड़ना ।यही है शिव होना।इसिलए योग और तंत्र के अधिष्ठाता देव शिव है।वैसे प्रत्येक जीव में ही शिव समाहित है पर वह उसे भूल चुका है,आवरण पड़ा है।योग उस आवरण को हटा कर एकत्व का रास्ता दिखाता है जिसके प्रवर्तक शिव कहे गए है।आदिशक्ति को दीक्षित करते शिव प्रथम गुरु है और जगतजननी प्रथम शिष्य!!इसी दीक्षा ज्ञान वार्तालाप को गुप्तज्ञान कहा गया जो अमरनाथ की गुफा में घटित हुई।शिव को ‘स्वयंभू ‘इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वे आदिदेव हैं, जब सृष्टि में कुछ भी नहीं था तब भी वह थे, उन्हीं से धरती पर संसृति का संचार हुआ।
सनातन शास्त्रानुसार तिब्बत स्थित कैलाश पर्वत शिव का आरम्भिक निवास है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत पृथ्वी की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। बिग बैंग थ्योरी के अनुसार जब समुद्र दूर हटे तो धरती के छोरो का प्रकटन हुआ।परन्तु नवीनतम खोजो के अनुसार आज भी कैलाश का एक स्थल ऐसा है जिसे सम्पूर्ण पृथ्वी का केंद्रीय तत्व कहा जा सकता है।कैलाश के निवासी शिव ध्यान और योग की पराकाष्ठा है।कैलाश के निर्जन एकांत में रहते हुए शिव अवधूत हो जाते है।ध्यान में सहज स्थित शिव का परम धाम समस्त सृष्टि का मूल हो यह सहज सम्भाव्य है।
भारतीय वांग्मय में जीवत्व से शिवत्व को पाना ही जीवन का परम् लक्ष्य कहा गया है।जीव से शिवत्व के इस मार्ग को ही योग कहा गया है जिसकी निसृति आदियोगी शिव के श्रीमुख से हुई।यह गूढ़ गम्भीर रहस्यात्मक ज्ञान जो शिव ने पार्वती को दिया कालांतर में उस ज्ञान की अनेकानेक शाखाएँ हो चली है।वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल ग्रँथों में सम्मिलीत है। ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन किया गया है। योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव का योग तंत्र ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ और ‘शिव संहिता’आदि में समाहित है। मेरुतंत्र आदि अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षाओ का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं ।आदियोगी शिव ही योग का मूल स्रोत है इसिलए उन्हें अवधूत रूप में व्यक्त किया गया।योग तंत्र में साधना में तीन नाड़ियों का विवेचन होता है–ललना, रसना और अवधूती, जिनमे से अवधूती सुषुम्ना स्थान में स्थित होती है है। यह मध्यदेशीया एवं मध्य ग्राह्य-ग्राहक-विवर्जिता होती है।-“ललना पज्ञा स्वभावेन रसनोपायसंस्थिता।अवधूती मध्यदेशे तु ग्राह्यग्राहकवर्जता,….अद्वयवज्रसंगह!”
इस तरह जो धर्ममुद्रा तथा महामुद्रा की अभेदता की हेतु अवधूती, नाड़ी में रमण करते है वह ‘शिव’ है। महानिर्वाण तंत्र में जगत में चार तरह के अवधूत कहे गए है–ब्रह्मावधूत” जो किसी भी वर्णाश्रम का ब्रह्मेपासक हो,”शैवावधूत”जो सविधिपूर्वक सन्यस्त हो,”बीरावधूत” अर्थात औघड़ वेशधारी जैसे बंगाल के बाउल और “कुलावधूत”अर्थात कुलानुशासन में रत गृहस्थ अवधूत।वस्तुतः ध्यान देने पर ज्ञात होगा कि शिव महावधूत है जिनमे ये चारों रूप समाहित है।अतः वह महा सुखाश्रय,सहज आनंदप्रदायक है और अद्वय स्वभावा है।जो स्थाई रूप से अवधूती में रमण करते है !इसलिए वह रत रह कर भी विरत, विरक्त -सन्यस्त है।वस्तुतः ‘सन्यास’का शाब्दिक अर्थ –सम+न्यास अर्थात जिसमे समत्व स्थापित हो चुका वही सच्चा सन्यासी है,अवधूत है।अवधूत होना अर्थात मन की वह अवस्था जहां समत्व ठहर गया हो,सहजता,सरलता,तरलता हो,द्रवण हो प्रेम ,आल्हाद का।इतना सहज ज्यो कि शिशु हो।शिव भी वही है।क्योंकि अवधूत हुए बैगेर महायोगी होना असंभव है अतः गृहस्थ हो जाने के बाद भी वह अवधूत हुए ही रहते है,आसक्ति और विकारों से दूर सम्यक दृष्टि को प्राप्त शिव तमाम मलिनताओं को धारण कर भी उनसे परे ही रहते है ,तनिक भी प्रभावित नही होते।वह इतने सम्यक है कि अन्य देवो से इतर उन्हें अमृत की कोई लालसा नही और न ही कालकूट से कोई परहेज या भय है।चिदाकाश में व्याप्त परम् तत्व में सदालीन शिव सम्यकत्व की सभी सीमाओं को लांघते दृष्टव्य होते है।सूर और असुर का भेद किये बैगेर सभी के लिए समान रूप से वरदाई होते है।यथार्थ में जीते हुए अपनी चित्तवृत्तियों से निर्भय हुए शिवत्व को अवधूत कहना समुचित ही है।जीव से शिव की अवस्था को पाने में मुमुक्षु हुए बैगेर शिवत्व सम्भव नही यही समझाते है शिव।तंत्र भी योग की भांति ही समर्पण का मार्ग है।आदियोगी शिव का स्वरूप यही सिखलाता समझाता है कि संसार मे रह कर सभी कर्तव्य कर्मो को करते हुए चेतना के स्तर पर कैसे ऊपर उठा जाए।उनके द्वारा बताए गए एक सौ बारह उपायो के माध्यम से मनुष्य अपनी सीमाओं से परे जा कर अपनी उच्चतम संभावना तक पहुँच सकता हैं। यही योग के एक सौ बारह उपाय व्यक्तिगत रूपांतरण के वे साधन है जो न केवल पशु हुए मनुज को बदल कर शिवत्व तक ले जा सकते है बल्कि यही संसार के रूपांतरण का एकमात्र उपाय भी है। शिव की भांति बाहरी चक्षुओं को मूँद कर भीतरी दिव्य चक्षु की ओर उन्मुख होना ही शिवार्चन का अभीष्ट है।जिसे शिव की भांति अंदर की ओर मुड़ने की कला आ जाती है वह अवधूत हो जाता है और ऐहिक जगत में रहते हुए भी सभी कठिनाइयों से जूझते हुए भी नवीन सम्भावनाओ के वातायन खोल लेता है।यही मनुष्यता के कल्याण और मुक्ति का उपर्युक्त साधन भी है।अतःआइए हम मनुष्यता के कल्याण के लिए अवधूत हुए महायोगी शिव की अर्चना कर अपनी चेतना के नवीन स्तरों का नया आयाम खोल शिवार्चन को सार्थक करे।यही सच्ची शिव पूजा होगी।ॐ नमः शिवाय!!–