मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

“अरे रामा कजरी तीज का मेला …!”

कजरी तीज पर विशेष.. हमारी संस्कृति

डॉ.नीता चौबीसा, बांसवाड़ा राजस्थान

भारत एक उत्सवधर्मी देश है, जहां उत्सवों का अपना एक अलग रंग देखने को मिलता है। यह उत्सव ही है जो भारत की एकता और अखंडता को कायम रखे हुए है।यहां उत्सव ऋतुओ के अनुरूप ही अपने रंग बिखेरते है।भाद्र पद मास में पड़ने वाले उत्सवों त्योहारों व्रतों में कजली तीज का व्रतोत्सव प्रमुख है जिसकी अपनी ही छटा है।इसे बूढी तीज ,बड़ी तीज या सातुड़ी तीज भी कहते है। यह सभी भारतीय महिलाओ कुमारिकाओं का एक तरह का श्रृंगार पर्व है।बाहर प्रकृति अपने सुकुमार श्रृंगार के साथ हरीतिमा बिखेरे नवजात झरनों नदी नालों की मधुर धड़कन में अपनी धड़कन मिला कर गीत गा रही होती है और इधर भादो के आते ही हम सभी अपने चौबारे में सिजारो के स्वागत करने के लिए तैयारी में जुटे कजली तीज के गीत गा रहे होते हैं। यह पर्व अपने साथ एक प्राचीन पौराणिक भारतीय विरासत को भी समेटे हुए है।यूं तो सिंजारे का कोई खास नियम नहीं है, इसे अपनी पसंद से सजाया जा सकता है. आमतौर पर  सिंजारे में खूबसूरत परिधान, मेहंदी गहने और मिठाइयां लेकर जाई जाती है. इस खूबसूरत सौगात के लिए हर महिला उत्साहित रहती है. ये रिति-रिवाज से जुड़ा एक खास तोहफा होता है. इसमें श्रृंगार के सामान को बड़ी अहमियत दी गई है. सिंजारे में सोलह श्रृंगार को शामिल करके सदा सुहागन रहने की शुभकामनाएं दी जाती हैं।इसलिए इसे सिंजारा तीज भी कहते है।कजरी तीज के दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी आयू के लिए व्रत रखती है और अविवाहित लड़कियां इस पर्व पर अच्छा वर पाने के लिए व्रत रखती हैं। इस दिन जौ, चने, चावल और गेंहूं के सत्तू बनाये जाते है और उसमें घी और मेवा मिलाकर कई प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं। चंद्रमा की पूजा क

रने के बाद यही सत्तू खा कर व्रत खोलते हैं इसलिए इसे सातुड़ी तीज भी कहते है।

कहीं कहीं कजरी तीज के दिन गायों की पूजा भी की जाती है। आटे की सात रोटियां बनाकर उस पर गुड़ चना रखकर गाय को खिलाया जाता है। इसके बाद ही व्रत तोड़ते है.साथ ही इस दिन घर आंगन खेत खलिहानों में झूले  डाले जाते  है और महिलाएं इकठ्ठा होकर नाचती है और गाने गाती और झूले झूलती हैं। कजरी गाने इस उत्सव का एक अभिन्न हिस्सा हैं।इस दिन नीम की पूजा भी की जाती है। उसके बाद चाँद को  पूज कर निहोरा देने की परंपरा हैं।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, कजली मध्य भारत में स्थित एक घने जंगल का नाम था जंगल के आस-पास का क्षेत्र राजा दादूरई द्वारा शासित था। वहाँ रहने वाले लोग अपने स्थान कजली के नाम पर गाने गाते थे ताकि उनकी जगह का नाम लोकप्रिय हो सकें।कुछ समय पश्चात् राजा दादूरई का निधन हो गया, उनकी पत्नी रानी नागमती ने खुद को सती प्रथा में अर्पित कर दिया। इसके दुःख में कजली नामक जगह के लोगों ने रानी नागमती को सम्मानित करने के लिए राग कजरी मनाना शुरू कर दिया।इस दिन को देवी पार्वती की पूजा करने के लिए मनाया जाता है क्योंकि गौरी पूजा से अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है।उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान सब जगह यह त्यौहार अलग तरीके से मनाया जाता है।देश के अलग अलग भागो में कुछ प्रादेशिक बदलावों के साथ कजली तीज मनाई जाती है।उत्तर प्रदेश व बिहार में लोग नाव पर चढ़कर कजरी गीत गाते है. वाराणसी व मिर्जापुर में इसे बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. वे तीज के गानों को वर्षागीत के साथ गाते है.

राजस्थान के बूंदी में कजली तीज का बहुत महत्त्व है, इस दिन यहाँ बड़ी धूम होती है।भादों के तीसरे दिन को वे बहुत हर्षोल्लास के साथ मनाते है।बहुत भारी मेला लगता है।लहरिया,मेहंदी मेमन्द के साथ पारंपरिक नाच गान घुमर होता है। ऊंट, हाथी की सवारी की जाती है। इस दिन दूर दूर से लोग बूंदी की तीज का मेला देखने आते है।कजरी तीज एक ओर जहां महिलाओं को प्रकृति से जोड़ती है वहीं यह समाज को भी संदेश देती है कि प्रकृति और नारी दोनों का सम्मान व संरक्षण सार्थक परिणाम लाता है। कजली तीज पर गाए जाने वाले लोकगीतों की छंटा भी अलबेली है।इसमें जहां प्रादेशिक बोली कि भावभीनी सुगन्ध होती है वही हंसी ठिठोली, प्रेम ,बिरहा ,छेड़खानी के गुंजार भी होते है।कजली के गीतों में सावन -भादो के वर्णन के साथ राजस्थान की महिलाएं जहां तीज के अवसर पर मेले में जाने की जिद करती हुई सखियो से कहती है-

” ऐ री सखि री,मैं तो ओर चुनरिया जाऊंगी मेले में,मोरा मन ना लागे घर के झमेले में,दादूर मोर पपीहा बोले छाई अजब बहार,लाल चुनरिया ओढ़ चली मैं करके सोलह सिंगार,

मैं तो झम-झम नाचूं तीजौ के मेले में,

मोरा मन ना लागे घर के झमेले में..!

“सावन में मायके जाने की प्रथा है।

जब भाई का बुलावा नहीं आया तो नायिका अपनी सास से कहती है

:”सबके तो सासू जी आए मेहमान,हमरे बीरन नहीं आय रे..!

” इस पर सास जवाब देती है-

“कर लेयो बहुरिया डोला कहार,

चली जाओ बाबुल के देस रे..

पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार में गए जाने वाली कजरी तीज के गीतों में भी आंचलिकता की सौंधी महक मिलती है।इन कजरी लोकगीतो में लोक परम्पराओ के साथ साथ सावन भादो के मल्हार और बिरहा का वर्णन मिलता है।यही भाव बृज के कजरी गीतों में भी मिलता है जहां राधा कृष्ण के प्रेम व बिरहा का आत्यंतिक वर्णन गाया जाता है—

“नन्हीं नन्हीं बुंदिया पर

ई मोरे अंगनाना आए

सजनवा हमार रे

पापी पपीहा पुकारई

पिऊ- पिऊजारै जियरवा हमार रे..!“

वास्तव में पूरी दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है, जहां मौसम के बदलाव की सूचना भी त्यौहारों से मिलती है। इन मान्यताओं, परंपराओं और विचारों में हमारी सभ्यता और संस्कृति के अनगिनत सरोकार छुपे हैं। जीवन के अनोखे रंग समेटे हमारे जीवन में रंग भरने वाली हमारी उत्सवधर्मिता की सोच मन में उमंग और उत्साह के नए प्रवाह को जन्म देती है।कजरी तीज हो या अन्य व्रतोत्सव ये सभी जीवन मे रंग भरते है जीने की उमंग देते है हमारी परम्पराओ और संस्कारों से नाता जोड़े रखते है और संस्कृति को प्रवहमान रखते है तभी हम सभी गाते है–“अरे रामा कजरी तीज का मेला चलो चले झुळवा झूले रे आलि..

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