मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

साहित्य

खबर नहीं खुद शहर को शहर कहाँ है

 

प्रियांशु त्रिपाठी

शाम 5 बजे ट्रेन बनारस स्टेशन पर हमें सही सलामत उतार देती, और स्टेशन परिसर से बाहर निकलते की बहुत से अंजान चेहरे हमें देखते हैं और टोकते हैं “सर अॉटो”, “सर आईये हम ले चलते है”, “सर बताईये कहा जाना है”, मन कन्फ्युज हो जाता है कि क्या करें इनके साथ जाये या उनके साथ, पर हम बिहारियों में एक गुण और बेहद खास होता है वो होता है ज़्यादा सोचने की शक्ति, मगर कभी कभी हम इसका दूर उपयोग भी कर लेते है । मगर यहाँ इसका उपयोग हुआ मन में बात आई इ सब अॉटो वाले स्टेशन के अंदर कुद फैल रहे हैं, मने वाहन परिसर में ही सटा के रखे होंगे और पार्किंग भी भाड़ा में जोड़ लेंगे (नोट- ये बात यात्री मन जानता है और इसी को आप अनुभव कह सकते है)।ऑटो वाले दूरी से ज़्यादा भाड़ा बता रहे थे और हम 60% पर डटे हुए थे, अंत में बात 70% पर बनती है और हम 6 लोग ऑटो में बैठ जाते हैं( पाँच हम और एक ऑटो वाले भइया) । रास्ते अंजान नहीं लग रहे थे, सड़क भी वहीं पुरानी यादों में बसी और गलियों से थोड़ी जान पहचान थी। इन यादों की तोकरी लिए हम मंजिल तक पहुँच जाते हैं और असल सफ़र अब शुरू होने को था। गर्मी इतनी थी कि देर शाम हम जल्दी नहाकर तैयार हो जाते हैं आलसी शरीर आशिक़ मन पर हर बार हावी होने की कोशिश कर रहा था पर हम सब ने आलस त्याग कर घूमना पसंद किया ।

मैंने ऑटो वाले भइया की तरह इसे 1 किलोमीटर 600 मीटर का झाँसा देकर चलने को राजी किया । मगर हरि ओम थोड़े दूर जाकर पुछते है भाई तुम्हारा 600 मीटर हुआ की नहीं । और मैं बस हा और थोड़ी दूर वही है ये कहकर खींचता रहा । सावन के कारण चहल पहल ज़्यादा थी और हम रास्ते पर भटक रहे थे । आख़िरकार घाट पर पहुंचते है और एक अलग राहत दिल को मिलती है जिसे शब्दों में बतलाया जा सकता है मगर आप उस मात्रा में उसे महसूस ना कर पायेंगे । आरती का इंतज़ार और फोटो की कतार के बाद अब दिल चाय की तलाश में, और चाय कहाँ बढ़िया मिले ये वहीं के लोग बेहतर जानते है और हमें ऐसे ही एक खुदा का बंदा मिलता है और एक दुकान की ओर इशारा कर देता है, कुल्लड़ की चाय जब मिले तो लगा कि मानो जन्नत के रास्ते परियों की डोली अपनी महक बिखेरते हुए होंठों से  गुजरी । चाय सुड़क कर अब अगले मंजिल की ओर । हम सबका एक दोस्त कुछ दिनों पहले ही वहाँ आया था और उससे मिलने की बेचैनी तोशवंत सर को थी । और भाई की बात कौन टाले हम सब भी बोले चलिये मालिक । साथ डिनर का मन बन रहा था मगर हमें भूख ज़्यादा ही लगी थी तो हम सब ने वापस आकर खाना ठूस लिया और फिर मन को आशिक़ मोड से यात्री मोड पर सिफ्ट किया ।

दोस्त मिलने को इतना उत्साहित, अपने पता के साथ पिन कोड भी सेंड करता है मगर पता ऐसा की टोटो, ऑटो, दुकान, और रिक्शा वाले चच्चा भइया सब कन्फ्यूज, हमें ये समझ नहीं आ रहा था कि यहाँ हम नये है या ये लोग इन्हें ये नहीं पता । एक टोटो वाले भइया को पिन कोड के साथ भी बताने पर कहते है थोड़ा और बड़ा जगह  या दायरा बताइये, मैंने भइया से बोला भइया बनारस । अब वो मुझे मोदी समर्थक की तरह देखने लगे और मैं उन्हें । ऐसा लग रहा था जैसे खबर नहीं खुद शहर को शहर कहाँ है, तभी बहुत देर के मेहनत के बाद एक भइया बाज़ीगर की भूमिका में आते है और हमें ले जाने को तैयार हो जाते है । थोड़ी दूर जाने पर टोटो वाले भइया के घर कुछ परेशानी हो जाती है और हमें उन्हें वहीं 25% भाड़ा देकर अलविदा कहना पड़ता है, आगे दूसरे टोटो वाले भइया के साथ रास्ता तय करना पड़ता है । रास्ते में मुझे भी यहीं लगता है वो दोस्त किसी दूसरे शहर में है क्या, इतना घुमाव रास्ता । भटकते भटकते हम सभी पहुँच जाते हैं और टोटो वाले भइया को कहते है इंतज़ार करिये 10 मिनट में आते है और ये 10 मिनट वो भारतीय समय के अनुसार, माने 30 मिनट तो कम से कम। अंधेरी गली, भारत की टूटी फुटी व्यवस्था और सरकार की भव्य बेकार कार्यों को गले लगाते आगे बढ़ते है और वो दोस्त अपने बालकनी में टंगा मिलता है । नीचे आकर गेट खोलते हुए हम उससे कहते हैं मिल लिए ना अब चलते है और वो अरे गेट पर से कैसे ऊपर चलो। मेरे मुँह से निकल जाता है चाय मिलेगा तो चलेंगे । वो बोलता हैं अरे यार ये भी बोलने की बात है क्यों नहीं पर पहले चलो तो ।

तभी अंदर वाले गेट से भौंकने की धीमी आवाज़ आती है, नहीं नहीं ये मैंने नहीं बोला, ये अंदर से छोटे से कुत्ते की आवाज़ आती है जो काँटना के लिए उतावला नहीं था ये उसका आवाज़ भता रहा था । दोस्त कहता है मालिक का कुत्ता है काँटता नहीं है । अप्पू नाम है बहुत प्यारा है । ये विशेषता सुनकर हम सब दोस्त के पीछे पीछे सीढ़ी पर चलते है और तभी भौंकने की आवाज़ फिर आती है और यहाँ मैं बोल रहा था वो अप्पू नहीं । आवाज़ सुनकर अप्पू आ जाता है और हरि ओम सीढ़ी पर चढ़े नहीं थे हरि ओम और अप्पू आमने सामने मानो बचपन के यार । पर हमारे दोस्त यहाँ बाज़ीगर के अंदाज़ में रहता है (हरि ओम नहीं वो अप्पू) । हरि ओम को लग रहा था आज बाबा की धरती पर मोक्ष निश्चित है, और उसके मन में एक धून बज रही थी जो उसके अलावा सब सुन रहे थे “तेरी नजरों ने दिल का किया जो…”। तभी हमारा दोस्त अप्पू को अंदर करता है और हरि ओम ऊपर (ज़्यादा ऊपर ना सोचे, बस फस्ट फ्लोर पर) । हम सब बात करते हैं और चाय बनने का इंतज़ार । दोस्त एक बार तो बातों में इतना गुम हो जाता है कि पानी ही सिर्फ़ गर्म होते रहती है । फिर दोबारा चाय बनाने की प्रकिया शुरू होती है । और चाय के पहले जैसे ही हरि ओम सेल्फी लेने लगते है तभी एक कमरे के गेट से पर्दा हटता है हम सब सुन क्योंकि दोस्त को किचन में है । हम सब थोड़े सहम जाते है फिर खबर होती है ये उस दोस्त का फ्लेट पाटर्नर है । चाय उडेल कर जल्द हम निकलते है फिर रास्तों में और खो जाते है जैसे आप सब इसे पढ़कर बनारस की गलियों में खो चूके हैं मगर आपको हमारे खोये किरदार अलगी कहानी में जल्द मिलेंगे और फिर संग सफ़र को आगे तय करेंगे ।

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