हमारे कर्तव्य
माधुरी भट्ट
समाजसेवी, शिक्षिका
विधाता की अद्भुत और विलक्षण कृति है मनुष्य।मानव के अन्तस् में अपूर्व शक्तियों का खज़ाना समाहित रहता है। बस ज़रूरत होती है उस ख़ज़ाने पर जमी हुई धूल को झाड़ने की और उसका सदुपयोग करने के लिए इच्छा शक्ति का विकास करने की।जो भी इस अद्भुत खज़ाने को पाने में समर्थ हो जाता है फिर उसके जीवन में असम्भव शब्द की गुंजाइश नहीं रहती है,
लेकिन यह भी सत्य है इस अद्भुत शक्ति का प्रयोग करते समय इंसान का जागरूक होना जरूरी है , नहीं तो रावण ,कंस और हिरण्यकश्यप जैसे अनेकों शक्तिशाली व्यक्तित्वों में परिवर्तित होने में भी देर नहीं लगती।
आज इंसान यही करता जा रहा है। विकास की आँधी में वह इस तरह बह चला है कि उसे अच्छे-बुरे का भान ही नहीं हो रहा है। नतीजा हमारे सम्मुख है!आज हम हालातों के आगे इतने मजबूर हो चुके हैं कि इस अदृश्य मुसीबत के आगे घुटने टेकने को मजबूर हैं।फिर भी हम इस सच्चाई को स्वीकार नहीं कर रहे हैं कि जो भी घटित हो रहा है हमारे ही किए हुए कर्मों का नतीज़ा है । इतना कुछ खोने के बाद भी हम समझ नहीं रहे हैं कि इन परिस्थितियों से कैसे निज़ात पाई जाए। हम कभी सरकार को दोष देते हैं तो कभी शासन-व्यवस्था को,लेकिन क्या कभी हम स्वयं के गिरेबान में झाँकने की कोशिश करते हैं! हम कितने गहरे पानी में डूबे हुए हैं।यदि मुट्ठीभर लोगों को छोड़ दिया जाए तो हर कोई अपना उल्लू सीधा करने में लगा हुआ है। जिसके हाथ में शक्ति है वह हर तरह से अपने को सुरक्षित करने में जुटा हुआ है।उसको वह सक्षमता क्यों दी गई है इस को भुला कर वह उन निरीहों के हक़ को छीनने में लिप्त है। ऊपर से लेकर नीचे तक श्रृंखलाबद्ध होने के कारण इन मौकापरस्तों पर उँगली उठाना भी स्वयं को ही मुसीबत में डालना है।
सरकारी कर्मचारियों को तो लगता है कि उनकी कुर्सियाँ तो उनसे इतनी वफ़ादारी निभाएँगी कि वे भले ही ईमानदारी से कार्य करें या न करें उन्हें तो कुर्सी से कोई हिला ही नहीं सकता। सरकारी बैंक हो या टेलीफोन एक्सचेंज सबकी कहानी हम से छिपी हुई नहीं है। सरकारी दफ्तरों में एक छोटे से काम के लिए जबतक दस बार दौड़ न लगाई जाए तबतक कोई काम होना असम्भव है।टेलीफोन एक्सचेंज के कर्मचारी तो फ़ोन उठाने की भी ज़हमत नहीं उठाते हैं।यदि ग़लती से उठ भी गया तो झूठा आश्वासन देकर ग़ायब हो जाते हैं।आख़िर कब समझ पाएँगे हम अपने कर्तव्यों का निर्वहन ईमानदारी से करना? सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि क्या यही आज़ाद भारत है!जहाँ हर कोई अपने कर्तव्यों की अनदेखी कर मनमानी करने के लिए आज़ाद है?