मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

“प्राचीन भारतीय राजनय एवं वृहतर भारत की गौरव गाथा” (भाग-२)

डॉ नीता चौबीसा
(‘बांसवाड़ा, राजस्थान)

प्रायः वर्तमान में राजनीतिक चिन्तन को केवल पश्चिम की ही परम्परा एवं थाती माना जाता है परन्तु गौर करें तो भारत की लगभग पाँच हजार वर्षों से भी अधिक प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति में राजनीतिक चिन्तन की पर्याप्त गौरवशाली परम्परा रही है इसका जीता जागता प्रमाण रहा हमारा वृहतर भारत। पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तन की तुलना में भारतीय राजदर्शन एव राजनय व्यापक धर्म की अवधारणा से समृद्ध रहा है तथा उसका स्वरूप मुख्यतःसांस्कृतिक,आध्यात्मिक एवं नैतिक ही रहा है। मनु,कौटिल्य,शुक्र आदि के चिन्तन में संस्कृति,धर्म,अध्यात्म, इहलोक संसार, समाज, मानव जीवन, राज्य संगठन आदि के एकत्व एवम् पारस्परिक सम्बन्धों का सम्पूर्ण तानाबाना पाया जाता है। सामान्य भाषा में समझें तो राष्ट्रों अथवा समूहों के प्रतिनिधियों द्वारा किसी मुद्दे पर चर्चा एवं वार्ता करने की कला अथवा अभ्यास को ही ‘राजनय’ या ‘डिप्लोमैसी’ कहा जाता है।इसके अंतर्गत वे सभी प्रयास आते है जो किसी राष्ट्र ,समूह,प्रतिनिधि या व्यक्ति द्वारा एकल या सामूहिक रूप से करके उसे अपनी योग्यता, कुशलता और कूटनीति से दूसरे राष्ट्र को प्रायः मित्र बना लेते हैं अथवा सम्बन्ध बनाते हैं।प्राचीन भारत के राजवंशों व राज्यों में इसी राजनय की सुव्यवस्थित एव सुदीर्घ परंपरा रही है।यह किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीय कार्यक्रम को पूरा करने की विधि है, ‘नीति होती है’ और यह आन्तरिक अथवा बाहरी दोनों ही तरह की होती या हो सकती है। आन्तरिक नीति गृह-कार्यों से सम्बन्धित होती है ,जिसे गृह-नीति जबकि बाहरी राष्ट्रों से सम्बन्धो की नीति विदेश नीति कहलाती है जिसके आधार पर राष्ट्र की बाहरी व्यवस्थाओं सें सम्पर्क व सम्बन्ध, मित्रता व शत्रुता तय होती है। विदेश नीति और राजनय, राजनीति के वे पहिये हैं जिनकी सहायता से राष्ट्र की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति चलती है। किसी राष्ट्र द्वारा अन्य राज्यों के सन्दर्भ में अपने ध्येयों की पूर्ति ही उसकी विदेश नीति या असली राजनय है। ऐसी विदेश नीति के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता जो राष्ट्र के राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करें। अतः विदेश नीति या राजनय का अर्थ राज्य के उस व्यवहार के रूप में लिया जाता है
जिसके माध्यम से राज्य अपने हितों की पूर्ति करते हैं।भारत मे राज्यों के मध्य राजनयिक सम्बन्ध अति प्राचीन काल से चले आ रहे हैं। ये उतने ही प्राचीन हैं जितने कि भारत मे राज्य की अवधारणा या उनके बनने की प्रक्रिया रही है ।
प्राचीन भारतीय ऋषि परम्परा, चिन्तन मनन एवं उनके शास्त्रीय स्वरूप के प्रणयन में अग्रणी रही है। यद्यपि उनके राजनीति विषयक विचार मुख्य विषय के रूप में प्रतिपादित नहीं थे तथापि वैदिक मंत्र स्वयं में विचारों की विपुल राशि माने गये हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों का चिन्तन हुआ है। इन्ही विचारों की जीविका पर कालान्तर मे जब राज्यों, राष्ट्रों तथा उनकी शासन प्रणालियों का विकास हुआ तो स्वतंत्र रूप से एक आचार्य परम्परा भी विकसित हुई जिसने राजनीतिक विषयों पर तत्युगीन विचारों का प्रतिपादन किया। यद्यपि राजत्व सम्बन्धी स्वतंत्र ग्रंथ भारत मे कम हैं फिर भी जो थोड़े ग्रंथ उपलब्ध हैं, उनके रचनाकारों, प्रणेताओं तथा चिन्तकों ने राजनीतिक विचारों को महत्व के साथ प्रतिपादित किया है। वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत आदि में प्रसंगतः इन विचारों का उल्लेख विशद रूप से हुआ है।
भारत में राजनय का प्रयोग अति प्राचीन काल से चलता चला आ रहा है। वैदिक काल के राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में हमारा ज्ञान सीमित है। महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन भारतीय राजनयिक विचार का केन्द्र बिन्दु राजा होता था, अतः प्रायः सभी राजनीतिक विचारकों- कौटिल्य, मनु, अश्वघोष, बृहस्पति, भीष्म, विशाखदत्त आदि ने राजाओं के कर्तव्यों का वर्णन किया है। स्मृति में तो राजा के जीवन तथा उसका दिनचर्या के नियमों तक का भी वर्णन मिलता है। राजशास्त्र, नृपशास्त्र, राजविद्या, क्षत्रिय विद्या, दंड नीति, नीति शास्त्र तथा राजधर्म आदि शास्त्र, राज्य तथा राजा के सम्बन्ध में बोध कराते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्रनीति, आदि में राजनय से सम्बन्धित उपलब्ध विशेष विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी उपयोगी हैं।प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारों का परिचय चतुर्थ सदी ई. पू. के महान आचार्य एवं विचारक कौटिल्य जिसका अन्य नाम चाणक्य एवं विष्णुगुप्त था, के ‘अर्थशास्त्र’ नामक ग्रंथ के प्रथम वाक्य से मिल जाता है, जिसमें पूर्ववर्ती आचार्यों तथा उनके विचारों को उद्धृत किया गया है। इनमें भारद्वाज, विशालाक्ष, पराशर,विशुन,कौणदन्त, वातव्याधि, कणिड्क,बाहुदन्तीपुत्, कात्यायन, घोटमुख, दीर्घ चारायण, विशुनपुत्र और किंजल्क के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके मतों का उद्धरण दिया गया है जिससे यह ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में राजनय व राजत्वविषयक विचारों का दीर्घकालीन इतिहास रहा है।
महाकाव्य रामायण में भी किष्किंधा नरेश सुग्रीव से अयोध्या के मैत्री सम्बन्ध व लंका से युद्ध के बीच संवेदनशील दूती कार्य के मन्त्रणापूर्ण दौर का वर्णन मिलता है।महाकाव्यों में महाभारत एक ऐसा आकार ग्रंथ है जिसमें राजशास्त्र विचारकों तथा इस विषय के प्रणेताओं के नामोल्लेख भी मिलते हैं यथा- विशालाक्ष, इन्द्र, बृहस्पति, अनु, शुक्र, भारद्वाज, गौरशिरा, मातरिश्वा, कश्यप, वैश्रवण, उतध्य, वामदेव, शम्बर, कालकवृक्षीय, वसुहोम और कामन्दक। इनमें से दस आचार्य नवीन है तथा छः आचार्यों के नाम कौटिल्य ने भी उद्धृत किए हैं। उदाहरणार्थ विशालाक्ष के नीतिशास्त्र में दस हजार, इन्द्र के नीतिशास्त्र में पाँच हजार, और बृहस्पति के अर्थशास्त्र में तीन हजार अध्याय थे।महाभारत के ही शांतिपर्व में कीर्तिमान्, कर्दम, अनंग, अतिवल, वैण्य, पुरोधा काव्य और योगाचार्य नामक राजनीतिक विचारकों का भी विवरण मिलता है। इसके अतिरिक्त राजशास्त्र विचारक मनु, उशना, मरुत और प्राचेतस के द्वारा रचित श्लोकों का भी तत्सम उद्धरण मिलता है। इसी प्रकार कामन्दक ने नीतिसार में प्राचीन भारतीय राजशास्त्र विचारकों को उद्घृत किया है। यद्यपि ‘मय’ एवं ‘पुलोमा’ को छोड़कर अन्य पूर्ववर्ती हैं। इसी प्रकार चण्डेश्वर के ‘राजनीति रत्नाकर’ में अनेक आचार्यों और उनके ग्रंथों के मत प्रमाण-स्वरूप उद्घृत हैं। व्यास, कात्यायन, नारद और कुल्लूकभट्ट जैसे विचारक आचार्यों के ग्रंथ तो उपलब्ध नहीं हैं किन्तु उनके उद्धरण अवश्य मिलतें हैं।
प्राचीन काल मे भारतीय राजदर्शन आदर्शवादी न होकर अत्यंत व्यावहारिक रहा है।भारतीय राजदर्शन में आदर्श राज्य या ‘यूटोपिया’ सम्बन्धी काल्पनिक विचारों का सर्वथा अभाव है। जिस प्रकार पाश्चात्य जगत में प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ और सर टौमस मूर के ‘यूटोपिया’ हैं, वैसे ग्रंथ प्राचीन भारत में किसी ने ग्रँथ नहीं लिखे। इसी आधार पर यह कहना उचित होगा कि प्राचीन भारत की रचनाओं का दृष्टिकोण बहुत व्यावहारिक था, कोरा सैद्धांतिक या काल्पनिक नहीं था। ए० के० सेन ने लिखा है– ‘’हिन्दू राजनीतिक चिंतन उत्कृष्ट वास्तविकता से भरा पड़ा है और कुछ राजनीतिक अपवादों को छोड़कर भारतीय राजनीतिक विचारों का सम्बन्ध राज्य के सिद्धान्त और दर्शन से उतना नहीं है जितना राज्य की स्थूल समस्याओं से है।’’ उदाहरण स्वरूप राज्य के सप्तांगों का विचार पूर्ण रीति से व्यावहारिक ढंग से किया गया है और उसमें सेना,कोष तथा मित्र को भी अंग बताया गया है। अथवा विभिन्न राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में मण्डल का विचार, षाडगुण का विचार यथा-संधि, विग्रह आदि व्यावहारिक ढंग से किए गए हैं। राजनीति सम्बन्धी अधिकांश भारतीय सिद्धांतों को इन्ही व्यावहारिक विचारों में से खोज कर निकाला जा सकता है।भारत मे प्राचीन राजनय इतना शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के उच्च आदर्श पर स्थापित हो कर भी इतना पूर्ण एव सुदृढ़ रहा कि एक समय आते आते वृहत्तर भारत का निर्माण हो गया।आखिर वह कौनसी विशेषताए रही भारतीय राजनय में जो इतना कुछ कर पाने में हम सक्षम हो सके यह विचारणीय ही नही अनुकरणीय भी है!प्राचीन भारतीय राजनय हेतु भारतीय ग्रंथों में विशेष शब्दावली का प्रयोग मिलता है जो भारतीय राजनय की अपनी मौलिक शब्दावली है जो वर्तमान समय की पश्चिमी राजनैतिक विचारों पर आधारित शब्दावली से बिलकुल भिन्न है ।जैसे राज्य का साप्तांग सिद्धान्त, अंतरराज्य सम्बंध के चार उपाय -साम, दाम, दण्ड तथा भेद की नीति, त्रि- शक्तियाँ (सत्यगुण, रजोगुण तथा तमोगुण), कर्मफल सिद्धान्त, त्रिगुण सिद्धांत, आश्रम व्यवस्था,राजनीतिक एवं सामाजिक विषयों में अद्भुद समन्वय होना, राज्य एवं राजा की उत्पत्ति का दैवी सिद्धांत, मोक्ष की प्राप्ति राज्य का लक्ष्य होना, सांसरिक जीवन में और पारलौकिक जीवन में आध्यात्मिक एवं नैतिक आचरण, धर्मशास्त्रों के नियमों का समाज में पालक ऐसे सनातन विचार हैं जिसे सामाजिक व्यवस्था एवं राजनीतिक व्यवस्था दोनों में ही समान मान्यता दी गयी है।राजव्यवस्था में निटीशस्थ व अर्थशास्त्र के साथ साथ दंडनीति का महत्व होना भारतीय राजनय की परिपक्वता का उदाहरण है। भारतीय दर्शन मानवीय जीवन में आसुरी प्रवित्तियों की प्रबलता को स्वीकार करते हैं और इसी कारण उनके द्वारा दण्ड की शक्ति को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। इससे भी महत्वपूर्ण,धर्म और राजनीति का घनिष्ठ सम्बन्ध भारतीय राजनय का सबसे अलग पहलू है, प्राचीन भारत में राजनीतिक सिद्धान्तों का विकास धर्म के आने के रूप में हुआ। भारतीय विचार में धर्म एक व्यापक शब्द है। उसी कारण हिन्दू राजशास्त्र वेत्ताओं के राजनीति और धर्म एक एक दूसरे से पृथक नहीं किया। इसी कारण धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में राज्य का विचार ‘राजशास्त्र’ मे नाम से किया गया है अर्थात राजा का और प्रजा का पारस्परिक धर्म, राज्याभिषेक की विधि, राजाओं द्वारा यज्ञ करना, पुरोहित की नियुक्ति, राजकुमारों के संस्कार आदि का वर्णन है। इन धार्मिक पुस्तकों में केवल यही नहीं बताया गया है कि राजा और शासन को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए अपितु मंत्रियों, पुरोहित,सेनापतियों, दूत, न्यायधीश, कर्मचारी और सैनिकों के कर्तव्यों का भी वर्णन है। कर्तव्य और धर्म समानार्थक है, इस कारण भी राज्य सम्बन्धी विचार धर्म से प्रेरित है। इसी कारण प्राचीन भारत की राजनीति में नैतिकता का समावेश रहा और राज्यशास्त्र को नीतिशास्त्र कहकर पुकारा गया। भारतीय राजनय में राज्य एक आवश्य मूलभूत जनोपयोगी संस्था मानी गई है ,राजा देवत्व के प्रतीक फिर भी ऋग्वैदिक काल से ही यहां किसी व्यक्ति या व्यक्तिगत विचारों की अपेक्षा यथा सभा,
समिति,विदथ जैसी संस्थाओं पर विशेष बल दिया जाता था।
यहां धर्म का रक्षण राज्य का प्रमुख दायित्व था।सतही तौर पर देखने पर धर्म और राजनीतिक विचार एक-दूसरे से गुथे हुए हैं किन्तु राजनीति और धर्म के गुंथे हुए होते हुए भी धर्म कभी भी राजनीति पर हावी नही रहा केवल सहायक और पोषक तत्व बना रहा।भारतीय ग्रन्थों मे राजनीतिक विचारों की एकता और राजनय की सफलता का मूल स्रोत इसमे भी निहित है कि यहाँ राजतन्त्र की प्रमुखता व राजा के होते हुए भी राज्य के उद्देश्यों के बारे में आम सहमति आवश्यक बनी रहती थी,सर्वजन हिताय सर्व जन कल्याणार्थ के उद्देश्य से निर्णय लिए जाते थे और राज्य और राजनय का मूल आधार सप्तांग सिद्धान्त ही होता रहा जिसके अनुसार राज्य सात अंगों अथवों तत्वों से मिलकर बनता है। उसके अनुसार सात अंग अथवा प्रकृतियाँ ये हैं- स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड और मित्र और यह सभी समान रूप से अधिकारों व उत्तरदायित्वों का वहन करते हैं।इन सभी मौलिक विशिष्टताओ के चलते भारतीय संस्कृति का परचम बिना किसी युद्ध के भी विदेशो तल लहराया और प्राचीन भारतीय राजनय की इन्ही खूबियों के चलते अनेक देश भारतीय संस्कृति के संस्करणों का प्रमाण बन कर उभरे जिसे वृहतर भारत की संज्ञा दी गई।(क्रमशः)-

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