मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

सम्पादकीय

लोकतंत्र का वो काला दौर

अश्विनी कुमार चौबे

केंद्रीय पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन तथा उपभोक्ता मामले, खाद्य व सार्वजनिक वितरण राज्यमंत्री

जब आपातकाल के दिनों को याद करता हूँ, तो बहुत सी स्मृतियाँ मानस पटल पर आकर खड़ी हो जाती हैं। जेपी की एक हुंकार से हजारों हाथ उनके समर्थन में हवा में खड़े होते थे, उनमें एक हाथ मेरा भी था। आज ही के दिन 1975 में इंदिरा ने सुबह-सुबह आपातकाल की घोषणा की थी। दरअसल वह घोषणा लोकतंत्र को कब्जे में लेने की थी, मौलिक कर्तव्यों को बन्दी बनाने की थी। कांग्रेस की इस काली करतूत को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। भारतीय लोकतंत्र का सबसे दुःखद व काला अध्याय आपातकाल है। आपातकाल के दौरान मैं भी बक्सर व आरा की जेल में बंद रहा था। वो संघर्ष और यातना का दौर  था। सत्ता, सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग की सारी मर्यादाओं को ध्वस्त कर चुकी थी। जेल में घोर यातनाएं दी जा रही थीं। उस समय मेरे जैसे लाखों युवा देश की विभिन्न जेलों में बंद थे। रातों-रात देश को जेल बना दिया गया था। अभिव्यक्ति की आजादी को कैद कर लिया गया था।

विपक्ष के नेताओं को जेल में डाल दिया गया था।  25 जून 1975 को आपातकाल के विरोध में उठा हर स्वर वंदन का अधिकारी है, उन संघर्षों का ही परिणाम है कि देश में लोकतंत्र की बुनियाद इतनी मजबूत हुई है। जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर छात्र अनाचार/भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिए थे। छात्र आंदोलन को पूरे देश में व्यापक समर्थन मिल रहा था। इससे कांग्रेस की सरकार बौखला गई थी। जिस बेरहमी से आंदोलन को दबाने का प्रयास किया गया, वह दिल दहलाने वाला था। दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस का रवैया आज भी नहीं बदला है। जहाँ भी सत्ता में कांग्रेस रहती है, भ्रष्टाचार का बोलबाला रहता है। पार्टी पर एक परिवार का आधिपत्य आज भी कायम है। कांग्रेस उन राजनीतिक दलों की अगुवा है जो सैनिकों के शौर्य एवं पराक्रम पर सवाल उठाते हैं। भारत के राजनीतिक इतिहास में कुछ ऐसी तारीखें दर्ज हैं, जिनके साथ क्रूरतम यादें जुड़ी हैं। 25 जून 1975 को जब भारत की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी का गला इंदिरा गांधी की सरकार ने घोंटा था, तब एक झटके में लोकतंत्र को धराशायी कर दिया गया और लोकतंत्र के सभी स्तंभ छिन्न-भिन्न कर दिए गए। रातोंरात राजनीतिक विरोधियों की गिरफ्तारी होने लगी। जिस अंदाज़ से गिरफ्तारी हो रही थी उससे सहजता से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि इंदिरा अपने विरोध में उठने वाली सभी आवाजों को दबाने के लिए योजना तैयार कर चुकी थीं। केवल राजनीतिक आवाज ही नहीं, बल्कि मीडिया, कला, फिल्म, साहित्य आदि कहीं से भी उन्हें अपने खिलाफ कुछ सुनना बर्दाश्त नहीं था।  सांस्कृतिक क्षेत्र से जुड़े लोगों को भी यातनाएं सहनी पड़ीं। ऐसा भी नहीं था कि 25 जून को अचानक से आपातकाल की घोषणा कर दी गई थी। इसके पीछे एक बड़ी रणनीति थी। देश की जनता पर आपातकाल थोपने का मकसद सत्ता में बने रहना तो था ही, इससे भी अधिक खतरनाक मंशा तत्कालीन हुकुमत की थी। हमें उस पक्ष पर भी  चर्चा करनी चाहिए, जिसके कारण देश के लोकतंत्र को एक परिवार ने बंदी बना लिया। दरअसल लोकतंत्र की हत्या करके ही जो चुनाव जीता हो उसे लोकतंत्र का भान कैसे रह जाएगा ? लोकतंत्र की उच्च मर्यादा की उम्मीद उनसे नहीं की सकती, जो जनमत की बजाय धनमत और शक्ति का दुरुपयोग करके सत्ता पर काबिज होने की चेष्टा करें। श्री राजनारायण जी द्वारा इलाहबाद हाईकोर्ट में किए गए मुकदमें में कोर्ट ने अपना निर्णय इंदिरा के खिलाफ सुनाते हुए चुनाव रद्द कर दिया और 6 साल तक उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया। कोर्ट का फैसला यह बता रहा था कि कांग्रेस ने कैसे सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करके देश के लोकतंत्र पर आघात किया है। इस बात पर विपक्ष आंदोलन करने लगा था, हम आपातकाल से पहले सड़को पर थे। यानी यह कहना सहीं रहेगा कि आपतकाल के लागू होने से पहले ही भ्रष्टाचार एवं लोकतंत्र को एक परिवार के चंगुल से मुक्त कराने की लड़ाई शुरू हो गई थी। बिहार और गुजरात के छात्र पहले से आंदोलन कर रहे थे। एक तरफ देश में आपातकाल की पटकथा लिखी जा रही थी, वहीं दूसरी तरफ दिल्ली के रामलीला मैदान में इतिहास की सबसे बड़ी रैली लोकनायक जयप्रकाश के नेतृत्व में हो रही थी। इसी रैली में जेपी यह अंदेशा जता रहे थे कि इंदिरा लोकतंत्र की हत्या कर सकती हैं और उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है। जय प्रकाश नारायण की रैली ने कांग्रेस खेमे सहित प्रधानमंत्री तक को हैरत में डाल दिया था। बिजली काट दी गई ताकि अख़बार न छप पाएं और जय प्रकाश नारायण की बात जनता तक नहीं पहुँच पाए। रात 2 बजे के आस-पास पुलिस ने जेपी को गिरफ्तार करने के बाद देश में चुन-चुन कर कांग्रेस के विरोध की हर आवाज को दबाना शुरू कर दिया।

देश भर में इंदिरा और आपातकाल का विरोध करने वाले नेताओं की गिरफ्तारी हो चुकी थी। यह संघर्ष  लगभग 21 महीने चला। इस अलोकतांत्रिक और दुराचार से त्रस्त जनता ने खुली हवा में साँस ली। 1977 का चुनाव किसी नेता ने नहीं, बल्कि देश की जनता ने कांग्रेस के खिलाफ लड़ा और उसका परिणाम आज भी नजीर के तौर पर जाना जाता है। इंदिरा हार चुकी थीं। कांग्रेस हार चुकी थी। लोकतंत्र खिलखिला कर उन नेतृत्वकर्ताओं का अभिनन्दन कर रहा था, जिनके नेतृत्व में हमने आज़ादी की इस दूसरी लड़ाई को लड़ कर लोकतंत्र को बहाल करवाया था। आपातकाल के दौरान सभी प्रमुख विरोधी नेता जेल में थे, मैं भी जेल में लोकतंत्र की सुनहरे दिन की कल्पना से एक-एक दिन काट रहा था, तब मन में यही विचार आता था कि देश को एक ऐसे नेतृत्व की आवश्यकता है, जो सभी विचारों को समावेश करके आगे बढ़े। हमने अटल जी का कार्यकाल देखा सभी के विचारों का स्वागत होता था, आलोचनाओं  के बिंदु पर हास्य-विनोद के साथ चर्चा होती थी। अब आज हमारा लोकतंत्र, उच्च मर्यादा और आदर्शों का पालन करने वाले, कठिन परिश्रम को तवज्जो देने वाले नेतृत्व के हाथों में है। ऐसे में, जब मैं उस संघर्ष और यातनाकाल को याद करता हूँ, तो मुझे आज कांग्रेस और उसकी तथाकथित बौद्धिक जमात पर दया आती है आज के मजबूत लोकतंत्र की आपातकाल के दौर से तुलना करते हैं। आपातकाल की रट लगाए  लोगों को यह समझना चाहिए कि दो दशक से वह नरेंद्र मोदी की आलोचना ही कर रहे हैं। गत आठ वर्षों से बतौर प्रधानमंत्री भी नरेंद्र मोदी की आलोचना हर कदम पर की गई है। लेकिन क्या ऐसा करने वालों के साथ आपातकाल जैसा व्यवहार हुआ ? बहरहाल, आज आन्दोलन के स्वरूप में जो चिंताजनक बदलाव आया है उसे रेखाकित करना आवश्यक है आज आन्दोलन के नाम पर हिंसा-अराजकता आन्दोलन शब्द को कलंकित करने का काम कर रही है। वही आन्दोलन में नेतृत्व कौन कर रहा है इसको लेकर भारी षड्यंत्र देखने को मिल रहा है। मुझे याद है जेपी ने छात्रों को कहा था कि आन्दोलन हिंसक होगा तो मैं आन्दोलन से हट जाऊंगा। लेकिन आज के युवा आंदोलन के नाम पर किसीके बहकावे में आकर हिंसा का रास्ता चुन रहे हैं उससे बहुत दुःख होता है। मैं भी छात्र आंदोलन से निकला हूं। सबको यह समझना चाहिए कि सभ्य समाज में हिंसा का कोई स्थान नहीं है।

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