मालंच नई सुबह

सच हार नही सकता

साहित्य

पता ही नहीं चला

—-डॉ शेफालिका वर्मा मंगलवार, 17 मई 2022 मालंच नई सुबह fff

कभीमार्किट नजदीक देखती

 दौड़ कर चली जाती

बच्चों के लिये कुछ खरीद लाती

 आज अपने लिये कुछ खरीदने का मन हुआ पैसे पर्स में भरे है

घर के सामने सड़क पार

 दुकानें ललचा रही

 कब  हिम्मत ने जबाब दे दिया

 सड़क पार करने की

सच पता ही नहीं चला

बच्चों को स्वस्थ रखने के लिये

 अकेली घर मे कुछ खटर पटर करती रहती अपने भी कुछ खाने को जी ललचाता

 वो भूख कहाँ चली गयी

सच पता ही नहीं चला

सुबह का शोर नौ  बजे के बाद

घोर सन्नाटा में बदल जाता

 मन ललचाता है बहुत कुछ के लिये

पैसे हँसते रहते मुझ पर

जब तुझे अपने लिये सोचना था

 तब मरती रही औरों के लिये ,

 आज मैं हूँ

तन्हाई है पर तू कितनी बेबस हो जाती

खून पसीने की तेरी कमाई

तुझ पर ही हँसती

समय रहते तुमने उपभोग किया ही नही

अब पेंशन के पैसे उलट पुलट देखती

अपने लिये न सोच अभी भी बच्चों के लिये ही सोचती

मैं मजबूर हो जाती हूँ

जैसे सागर के किनारे कोई प्यासा

 नही सागर भी नहीं

स्वच्छ जलधार सी नदी कलकल छलछल

पर कब प्यास बुझ गयी

सच पता ही नहीं चला

घर के सामने कितनी नयी नयी दुकानें खुल गयी

मन का भँवरा करे गुंजार

 उन दुकानों के इर्दगिर्द

 कभी इन्ही दूकानों को देखते देखते

बोरिंग कनाल रोड से एएन कॉलेज पहुँच जाती

कदमों में कितनी चपलता भर जाती

पंछी बनूँ उड़ती फिरूँ मस्त गगन में

 घर की देहरी पैर रखते ही

जिम्मेदारियों के एहसास तले दब जाती

पैरों के बदले हाथों में चपलता आ जाती

उम्र क्या चीज होती है

मुझसे ज्यादा कौन समझेगा

ज़िन्दगी भर जिसे झुठलाती रही

आज मन की बात होकर रह गयी

 मैं  कब उम्र  के बोझ तले दब गयी,

सच पता ही नहीं चला ,,,

तुम तो जी लो ,,,,,,,,

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